खरी खरी - 46 : व्यथित पर्यावरण (1)
कर प्रदूषित मेरा तन
तू कहां टिक पाएगा,
संभल जा मानव तेरा
अस्तित्व ही मिट जाएगा,
बर्बादी वह है तेरी
जिसे तरक्की कह रहा,
पर्यावरण की पर्त पर
कहर तू बरपा रहा ।
तूने मेरे पर्वतों को
खोद कर झुका दिया,
बर्फीली चोटियों को
हीन हिम से कर दिया,
दिनोदिन मेरे शिखर का
रूप बिखरने है लगा,
निहारने निराली छटा
जन तरसने है लगा ।
बन के दानव जंगलों को
रौंदता तू जा रहा,
फटती छाती को तू मेरी
कौंधता ही आ रहा,
काट वन-कानन को तू
कंकरीट वन बना रहा,
उखाड़ उपवनों को मेरे
ईंट तरु लगा रहा ।
चीर कर तूने मेरा
रंग हरित उड़ा दिया,
कर अगिनत घाव तन पर
श्रृंगार है छुड़ा दिया ,
तरुस्थल को मेरे तूने
मरुस्थल बना दिया,
जल-जमीन-जंगल खजाना
सारा दोहन कर लिया ।
खरी खरी - 47 : व्यथित पर्यावरण (2)
रसायनों ने क्षीण कर दी
वह उर्वरा शक्ति मेरी,
बढ़ाई उपज फिर भी
भूख न मिट सकी तेरी,
कीटनाशक झाड़नाशक
मुझे विषैला कर रहे,
मिटा कर महक मेरी
जहर मुझ में भर रहे ।
खारापन जमीन का
खतरा तुझे बता रहा,
बढ़ रही मरुभूमि नित
हरितांश घटता जा रहा,
छतरी ओजोन की थी
छेद उसमें कर दिया,
अणु कचरे विकिरण से
पर्यावरण को भर दिया ।
जल, मल से रंग रहा है
देख पलकें खोल कर,
पी रहा हर घूंट में तू
विष की बूटी घोलकर,
लालसा मृदु पेय जल की
मन में तेरे रह गई,
लुप्त होती शुष्क सरिता
खुद हूं प्यासी कह गई ।
चिमनियां भर-भर ज़हर
नित उगल मुझ में रही,
सांस लेता जिस हवा में
वह भी निर्मल ना रही,
लकीर वाहन के धुंए की
बन के कोहरा छा गई,
शीतल मंद बयार अब तो
स्वप्न बन कर रह गई ।
खरी खरी-48 : व्यथित पर्यावरण ( 3, अंतिम)
कंद फल जड़ी बूटियां नित
लुप्त होते जा रहे,
जीव मेरे वक्षस्थल के
गुप्त होते जा रहे,
पिक बयन भ्रमर गुंजन को
तरसता रह जायेगा,
प्रकृति के स्वस्थ संतुलन की
जो सोच ना कर पाएगा ।
अश्रुरंजित नैन नित
धुंधले तेरे हैं हो रहे,
बिन परिश्रम ही पथिक के,
होठ नीले हो रहे,
श्वांस है जकड़ी हुई
रोग नित नए लग रहे
स्वच्छ जल और पवन को
मनुख नित तरस रहे ।
चाहता मानव के पग
बढ़ते रहे जहान में,
रुपहली धरा नहीं
बदले कभी वीरान में,
पर्यावरण की पर्त को
संभाल उठ तू जागकर,
सोच और तू जा ठहर
बढ़ न सीमा लांघ कर ।
चाहता तू जी सके
इस धरा में अमन चैन से,
वृक्ष बंधु मान ले
लगा ले अपने नैन से,
कोटि पुण्य पा जाएगा
एक वृक्ष के जमाव से,
स्वच्छ पर्यावरण में फिर
जी सकेगा चाव से ।
पूरन चन्द्र काण्डपल
17.07.2017
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