खरी खरी - 44 : अपराध बोध
एक बड़ा अपराध
फिर से कर लिया है,
कत्ल अपनी आत्मा का
सह लिया है ।
नजरों में लोगों की मैं
एक भला इंसान हूं,
कर्म ऐसा कर लिया है
जैसे मैं शैतान हूं ।
आंखें अपने आप से मैं
अब मिला सकता नहीं,
आत्मा झकझोरे मुझको
बोल कुछ सकता नहीं ।
हो गया अपराध जब
कंपकपाने मैं लगा,
जान जाए जग न सारा
सकपकाने मैं लगा ।
नहीं जानता क्यों मुझे वो
क्षमा यों ही कर गया,
निगाहों के आगे उसके
जीते जी मैं मर गया ।
विश्वसनीयता आज से वह
कैसे करेगा जगत पर,
विश्वास के क्षण पर उसे
आ जाऊंगा मैं ही नजर ।
बिना मांगे, मौन हो वो
क्षमा मुझे कर गया,
है उच्च क्षमा करने वाला
बात साबित कर गया ।
घृणा अपने आप से
हृदय मेरा अब कर रहा,
वो क्षमा मुझे कर गया
पर कर नहीं मैं पा रहा ।
प्रायश्चित अपराध का
करना जो चाहो तुम अभी,
पुनरावृति इस रोग की
होने न देना तुम कभी ।
(अपराध का बोध होने पर ऐसा होता है, यह महसूस करने की बात है ।)
(प्रथम हिंदी कविता संग्रह 'स्मृति -लहर' 2004 से उधृत)
पूरन चन्द्र काण्डपाल
09.07.2017
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