खरी खरी - 52 : पूजालय
मंदिर-मस्जिद वास नहीं मेरा
नहीं मेरा गुरद्वारे वास,
नहीं मैं गिरजाघर का वासी
मैं निराकार सर्वत्र मेरा वास ।
मैं तो तेरे उर में भी हूं
तू अन्यत्र क्यों ढूंढे मुझे,
परहित सोच उपजे जिसे हृदय
वह सुबोध भा जाए मुझे ।
काहे जप-तप पाठ करे तू
तू काहे ढूंढे पूजालय,
मैं तेरे सत्कर्म में बंदे
अंतःकरण तेरा देवालय ।
क्यों सूरज को दे जलधार तू
नीर क्यों मूरत देता डार,
अर्पित होता ये तरु पर जो
हित मानव का होता अपार ।
परोपकार निःस्वार्थ करे जो
जनहित लक्ष्य रहे जिसका,
पर पीड़ा सपने नहीं सोचे
जीवन सदा सफल उसका ।
राष्ट्र- प्रेम से ओतप्रोत जो
कर्म को जो पूजा जाने,
सवर्जन सेवी सकल सनेही
महामानव जग उसे माने ।
पूरन चन्द्र काण्डपाल
23.07.2017
(पुस्तक 'यादों की कालिका' से)
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