Wednesday 30 December 2020

Date hain vatan ke liye : डटे हैं वतन के लिए

मीठी मीठी -548 : डटे हैं वतन के लिए -40०C पर

       आजादी के बाद वर्ष 1947 - 48, 1962, 1965, 1971 और 1999 में हमारी सेना ने बड़े शौर्य के साथ दुश्मन का डटकर मुकाबला किया । वर्ष 1989 से जम्मू -कश्मीर में छद्म युद्ध लगातार हो रहा है जिससे हमारे सैकड़ों सुरक्षा प्रहरी वतन की माटी को अपने लहू से सिंचित कर गए । देश के कुछ अन्य भागों में भी हमारे सुरक्षाकर्मियों ने अपना बलिदान दिया है । हमारी सेना और अन्य सुरक्षा प्रहरियों ने भी दुश्मन की हर गोली का बड़ी मुस्तैदी से मुहतोड़ जबाब दिया और प्रत्येक शहीद के बलिदान का तुरंत बदला लिया । आतंकवाद के नाग का सिर कुचलना अभी बाकी है जिसकी देश को दरकार है । अब तक देश के लिए अपने प्राण न्यौछावर करने वाले सभी अमर शहीदों को नए साल की पूर्व संध्या पर विनम्र श्रद्धांजलि के साथ नमन । हम नव वर्ष पर अपने सैन्य भाइयों को भी हार्दिक शुभकामना देते हैं जो -40० C पर भी वतन की रक्षा में डटे हैं ।

बर्फीला सियाचीन हो या थार का तप्त मरुस्थल,
नेफा लेह लद्दाख कारगिल रण कच्छ का दलदल ।
हिन्द के सैनिक तुझे प्रणाम सारी मही में तेरा नाम
दुश्मन के गलियारे में भी होती तेरी चर्चा आम ।

     नववर्ष 2021 की पूर्व संध्या पर भलेही आज हम नए साल का स्वागत कर रहे हैं और एक - दूसरे को बधाई- शुभकामना दे रहे हैं परन्तु दिल से हम मातृभूमि के लिए स्वतंत्रता संग्राम से लेकर अब तक अपना बलिदान देने वाले इन वीर सपूतों के प्रति नतमस्तक होकर विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित कर रहे हैं और विनम्रता के साथ सभी शहीद परिवारों का बड़ी आत्मीयता से सहानुभूतिपूर्वक सम्मान करते हैं ।

'शहीदों की चिंताओं में
लगेंगे हर बरस मेले,
वतन पर मिटने वालों का
बस एक यही निशां होगा ।'

इस गमगीनअंधेरे में
एक दीप जलाते हैं,
सभी  मित्रों  को  नववर्ष
की शुभकामना देते हैं ।

जयहिन्द,
जय हिंद की सेना ।

पूरन चन्द्र काण्डपाल
31.12 .2020

Mujhe naheen pata shrangaar : मुझे नहीं पता श्रंगार

खरी खरी -765  : "मुझे नहीं पता श्रंंगार।"

         उत्तराखंड के पर्वतीय भाग में ग्रामीण महिलाओं के लिए विज्ञान कोई बदलाव नहीं लाया । वह कहती है, "मेरे लिए कुछ भी नहीं बदला । मैं जंगल से घास -लकड़ी लाती हूँ,  हल भी चलाती हूँ,  दनेला (दन्याइ) लगाती हूँ,  निराई-गुड़ाई करती हूँ,  खेत में मोव (गोबर की खाद) डालती हूँ,  दूर-दूर से पीने का पानी लाती हूँ, राशन की दुकान से राशन लाती हूं ।  पशुपालन करती हूँ और घर -खेत-आँगन का पूरा काम करती हूँ । वर्षा हो गई तो कुछ अनाज हो जाता है उसे भी सुंगर या बानर खा जाते हैं । इस उजाड़ को देखकर लगता है कि क्यों हमने इन खेतों में बीज बोया । इस उजाड़ को देखकर सांस अटक जाती है । मैं व्यस्त नहीं रहती बल्कि अस्त - व्यस्त रहती हूं । मुझे पता नहीं चलता कि कब सूरज निकला और कब रात हुई । मुझे नहीं पता श्रंगार क्या होता है ।"

      वह चुप नहीं होती, बोलते रहती है, ''गृहस्थ के सुसाट -भुभाट, रौयाट - बौयाट में मुझे पता भी नहीं चलता कि मेरे हाथों- एड़ियों में खपार (दरार) पड़ गये हैं और मेरा मुखड़ा फट सा गया है,  मेरे गालों में चिरोड़े पड़ गए हैं । सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले अपने बच्चों को तो मैं बिलकुल भी समय नहीं दे पाती । सिर्फ उनके लिए रोटी बना देती हूँ, हफ्ते में एकबार उनके कपड़े धो देती हूं बस । बच्चों से उम्मीद करती हूं कि से मेरे काम में हाथ बटाएं परन्तु उनको पढ़ाई भी करनी होती है इसलिए उनसे कुछ भी नहीं कहती । उनकी पढ़ाई से भी मैं खुश नहीं होती क्योंकि वे खींच - खांच के पास होते हैं ।

        अब कुछ बदलाव कहीं- कहीं पर दिखाई देता है वह यह कि खेत बंजर होने लगे हैं । नईं- नईं बहूएं आ गईं हैं जो पढ़ी लिखी हैं । वे यह सब काम नहीं करती । हम भी बेटियों को पढ़ाकर ससुराल भेज रहे हैं जो वहाँ यह सब काम नहीं करेंगीं । लड़कों के लिए यहाँ रोजगार नहीं है और वे बहू संग नौकरी की तलाश में निकल गए हैं या निकल रहे हैं । सरकार - दरबार से कहती हूं कि तुम ढूंढते रहो उजड़ते गाँवों से पलायन के कारण... पर गांव तो खाली हो गए हैं । यहां वे ही रह गए है जिनका कोई कहीं ले जाने वाला नहीं है ।"

पूरन चन्द्र काण्डपाल
30.12.2020

Monday 28 December 2020

Kumauni dohe : कुमाउनी दोहे

मीठी मीठी -  547  : कुमाउनी दोहे
                             (8 दोहे, 8 बातें)

कविता मन कि बात बतैं,
कसै उठी हो उमाव ।
बाट भुलियां कैं बाट बतैं,
ढिकाव जाई कैं निसाव ।।

द्वि आंखर हँसि बेर बलौ,
बरसौ अमृत धार ।
गुस्सम निकई कड़ू आंखर,
मन में लगूनी खार ।।

लालच जलंग पाखंड झुटि,
राग- द्वेष  अहंकार ।
अंधविश्वास अज्ञान भैम,
डुबै दिनी मजधार ।।

धरो याद इज बौज्यू कैं,
शिक्षक सिपाइ शहीद ।
दुखै घड़िम लै भुलिया झन
धरम करम उम्मीद ।।

याद धरण उ मनखी चैंछ,
मदद हमरि करी जैल ।
हमूल मदद जो कैकि करि,
उकैं भुलण चैं पैल ।।

देश प्रेम जति घटते जां,
कर्म संस्कृति क नाश ।
निहुन कभैं भल्याम वां,
सुख शांति हइ टटास ।।

तमाकु सुड़ति शराब नश,
गुट्क खनि धूम्रपान ।
चुसनी माठु माठु ल्वे वीक,
बैमौत ल्ही ल्हिनी ज्यान ।।

आपणि भाषा भौत भलि,
करि लियो ये दगाड़ प्यार ।
बिन आपणि भाषा बलाइए,
नि ऊंनि दिल कि बात भ्यार।

पूरन चन्द्र काण्डपाल
29.12.2020
कविता संग्रह 'मुकस्यार'

Sunday 27 December 2020

Jaimala mein bewade dost : जयमाला में बेवड़े दोस्त

खरी खरी - 764 :  जयमाला में बेवड़े दोस्त

        हम सब कहते हैं कि ज़माना बदल गया है | पहले के जमाने में ऐसा होता था, वैसा होता था | सत्य तो यह है कि ज़माना नहीं बदलता बल्कि वक्त गुजरने के साथ कुछ परिवर्तन होते रहता है |  कई शादियों में निमंत्रण निभाया और तरह तरह का बदलाव देखा | धीर-धीरे कैमरे को खुश करने के लिए बहुत कुछ बदलाव हो रहा है | कई बार वर-वधू को दुबारा पोज देने के लिए कहा जाता है | मस्ती के दौर में दोस्त उनसे मुस्कराने की फर्मायस करते हैं | आखिर कोई कितनी देर तक मुस्कराने की एक्टिंग कर सकता है, यह तो मेकअप से लथपथ बेचारी दुल्हन ही जानती है |

     अब बात एक जयमाला की कर लें | इस सीन में जो हो रहा है वह भी बहुत अटपटा है । जयमाला मंच के इस सीन में दूल्हा दोस्तों से घिरा है ( कुछ बेवड़े भी लेकिन होश में ) और दुल्हन भाइयों और सहेलियों से घिरी है | दुल्हन को कैमरे से पहले इशारा मिला कि जयमाला दूल्हे को पहनाओ | ज्योंही वह एक कदम आगे बढाकर जयमाला पहनाने लगी तो दूल्हे के दोस्तों ने दूल्हे को ऊपर उठा लिया | दुल्हन पहला चांस मिस हो गया और वह टैंस हो गयी जबकि कैमरा ऐक्सन में है | तुरंत भाइयों के हाथों में उठी हुई दुल्हन ने दूसरा प्रयास किया और जैसे –तैसे दोस्तों द्वारा ऊपर उठाये गए, पीछे की ओर टेड़ा तने हुए दूल्हे के गले में जयमाला ठोक दी जैसे घर में घुसे हुए तैंदुवे के गले में बड़ी मुश्किल से रस्सी डाल दी हो |

      इसी तरह दूल्हे को भी दो बार प्रयास करने पर सफलता मिली | दुल्हन का आर्टिफीसियल जेवर भी हिल गया और मेकअप का डिजायन भी बिगड़ गया | एक शादी में तो इस धक्कामुक्की में दूल्हे की माला भी टूट गयी | दोनों ओर के कबड्डी खिलाड़ियों से कहना चाहूंगा कि ये ऊपर उठाने का फंडा बंद करो और दोनों को ही असहज होने से बचाओ | ऐसा न हो कि गर्दन को माला से बचाने के चक्कर में दोनों में से एक गिर जाय | एक जगह तो दूल्हा - दुल्हन के लिए रखा हुआ सोफ़ा ही मंच पर पलट गया । दूल्हा नीचे गिरने से बाल - बाल बच गया । ये दूल्हे को ऊपर उठाने का भद्दा रिवाज पता नहीं कहां से ले आए लोग ?

      प्यार से नजाकत के साथ दूल्हा - दुल्हन को एक –दूसरे के पास ले जाकर मुस्कराते हुए मधुर मिलन से माल्यार्पण करना बहुत रोचक लगेगा | देखनेवाले भी रोमांचित होंगे और यह मिलन का क्षण अविस्मरणीय बं जाएगा | बेचारों का टेनसन भरा मुर्गा खेल मत कराओ | इस भौंडी हरकत से दोनों तरफ के अभिभावक बहुत असहज महसूस करते हैं और दुखी होते हैं । बेवडों को तो जयमाला मंच से दूर रखना चाहिए ।

पूरन चन्द्र कांडपाल
28.12.2020

Andhvishwaas ke grahan ko samjhein : अंधविश्वास के ग्रहण को समझें

खरी खरी - 763 : अंधविश्वास के ग्रहण को भी समझें

       यह बहुत अच्छी बात है कि सोसल मीडिया पर कई लोग ज्ञान का आदान-प्रदान कर रहे हैं, हमें शिक्षित बना रहे हैं परन्तु इसका विनम्रता से क्रियान्वयन भी जरूरी है | जब भी हमारे सामने कुछ गलत घटित होता है, गांधीगिरी के साथ उसे रोकने का प्रयास करने पर वह बुरा मान सकता है | बुरा मानने पर दो बातें होंगी – या तो उसमें बदलाव आ जाएगा और या वह अधिक बिगड़ जाएगा | गांधीगिरी में बहुत दम है | इसमें संयम और शान्ति की जरुरत होती है और फिर मसमसाने के बजाय बोलने की हिम्मत तो करनी ही पड़ेगी |

      हमारा देश वीरों का देश है, राष्ट्र प्रहरियों का देश है, किसानों का देश हर,  सत्मार्गियों एवं कर्मठों का देश है,  सत्य-अहिंसा और सर्वधर्म समभाव का देश है तथा ईमानदारी के पहरुओं और कर्म संस्कृति के पुजारियों का देश है | इसके बावजूद भी हमारे कुछ लोगों की अन्धश्रधा -अंधभक्ति और अज्ञानता से कई लोग हमें सपेरों का देश कहते हैं, तांत्रिकों- बाबाओं के देश कहते हैं क्योंकि हम अनगिनत अंधविश्वासों से डरे हुए हैं, घिरे हुए हैं और सत्य का सामना करने का साहस नहीं जुटा पा रहे हैं |

      हमारे कुछ लोग आज भी मानते हैं कि सूर्य घूमता है जबकि सूर्य स्थिर है | हम सूर्य- चन्द्र ग्रहण को राहू-केतू का डसना बताते हैं जबकि यह चन्द्रमा और पृथ्वी की छाया के कारण होता है | हम अंधविश्वासियों को सुनते हैं परन्तु खगोल शास्त्रियों या वैज्ञानिकों को नहीं सुनते । हम बिल्ली के रास्ता काटने या किसी के छींकने से अपना रास्ता या लक्ष्य बदल देते हैं | हम किसी की नजर से बचने के लिए दरवाजे पर घोड़े की नाल या भूतिया मुखौटा टांग देते हैं |

      हम कर्म संस्कृति से हट कर मन्नत मांगते हैं,  गले या बाहों पर गंडा-ताबीज बांधते हैं, हम वाहन पर जूता लटकाते हैं और दरवाजे पर नीबू-मिर्च टांगते हैं, सड़क पर जंजीर से बंधे शनि के बक्से में सिक्का डालते हैं, नदी और मूर्ती में दूध डालते हैं और हम बीमार होने पर  या घर में शिशु के न आने पर या किसी भी समस्या का निदान के लिए डाक्टर के पास जाने के बजाय झाड़ -फूक वाले तांत्रिकों अथावा अंधविश्वास का जाल फैलाए सैयादों के पास जाते हैं |

       वर्ष भर परिश्रम से अध्ययन करने पर ही हमारा विद्यार्थी परीक्षा में उत्तीर्ण होगा । केवल परीक्षा के दिन तिलक लगाने, दही-चीनी खाने या धर्मंस्थल पर माथा- नाक टेकने से नहीं | हम सत्य एवं  विज्ञान को समझें और अंधविश्वास को पहचानने का प्रयास करें | अंधकार से उजाले की ओर गतिमान रहने की जद्दोजहद करने वाले एवं दूसरों को उचित राह दिखाने वाले सभी मित्रों को ये पक्तियां समर्पित हैं -

‘पढ़े-लिखे अंधविश्वासी
बन गए लेकर डिग्री ढेर,
अंधविश्वास कि मकड़जाल में
फंसते न लगती देर,
पंडित बाबा गुणी तांत्रिक
बन गए भगवान,
आंखमूंद विश्वास करे जग,
त्याग तत्थ – विज्ञान ।

       सोसल मीडिया में मित्रों द्वारा मेरे शब्दों पर इन्द्रधनुषी प्रतिक्रियाएं होती रहती हैं | सभी मित्रों एवं टिप्पणीकारों तथा पसंदकारों का साधुवाद तथा हार्दिक आभार |

पूरन चन्द्र काण्डपाल
27.12.2020

Friday 25 December 2020

Data huaa hae kisaan : डटा हुआ है किसान

खरी खरी - 762 : डटा हुआ है किसान

किसान आंदोलन है जमा
हुआ बीते दिन इकतीस,
चुप्पी साधे घूर रहे हैं
राष्ट्र शासनाधीश,
राष्ट्र शासनाधीश किसान
भी डटा हुआ है,
बुलन्द होंसले और
संयम से खड़ा हुआ है,
कह 'पूरन' दिल्ली दहलीज पर
पड़ गए गहरे निशान,
हाड़ कंपाती ठंड हार गई
डटा हुआ है किसान ।

मानवता का तू है मसीहा
सबकी भूख मिटाता है,
अवतारी तू इस महीं पर
परमेश्वर अन्नदाता है ।
कृषक तेरी ऋणी रहेगी
सकल जगत की मानवता,
यदि न बोता अन्न बीज तू
क्या मानव कहीं टिक पाता ?

(अन्नदाता कृषक को सादर समर्पित)

पूरन चन्द्र कांडपाल
26.12.2020

Thursday 24 December 2020

jagar naheen marj ki dawa ii : जागर नहीं मर्ज की दवा ii

बिरखांत - 350 :  जागर नहीं है मर्ज की दवा (ii, समापन )

          (  पिछली बिरखांत 349, 24.12.2020 से आगे)

... आरम्भ में ढोल- तासे की आवाज मंद होती है जो धीरे-धीरे जोर पकड़ती हुई कड़कीली हो जाती है | तब वह क्षण आता है जब ढोल- तासे के शोर में कुछ भी सुनाई नहीं देता | सारा वातावरण गुंजायमान हो जाता है और इसके साथ ही डंगरिया नाचने लगता है | सौंकार और पंच- कचहरी हाथ जोड़कर स्वागत करते हैं | महिलाएं चावल और फूल चढ़ाती हैं | इसके बाद सौंकार अपनी समस्या देव के सम्मुख रखता है | उत्तर में समस्या पनपने के इने- गिने परम्परागत कारण डंगरिए द्वारा बताये जाते हैं जैसे- देव पूजा न करने से देवता रुष्ठ हो गए हैं, बुजर्गों का हंकार (श्राप) है, पांच या सात पीढ़ी की बुढ़िया लगी है, पुरखों ने बेईमानी की थी, कई पीढ़ी के पुरखों ने फलाने का हक़ मारा था, भूत- मसाण –हवा का प्रकोप है आदि | भूत- मसाण- हवा की जागर में तो महिलाओं को भी पंच-कचहरी के सामने लोटते –लुड़कते हुए देखा जा सकता है |

     जागर आयोजन का आदेश अक्सर ‘गणतुओं’ (पुछारियों) द्वारा उचैंण (मुट्ठी भर चावल तथा एक फूल) खोलने के बाद दिया जाता है | समस्या के पनपते ही उचैंण एक कपड़े के टुकड़े में बाँध दी जाती है जिसे गणतुआ (स्वयंभू आत्मज्ञानी स्त्री या पुरुष ) समस्या का कारण बताता है और जागर आयोजन की सलाह देता है | प्रथम जागर में एक निश्चित अवधि, दो- तीन सप्ताह या अधिक दिनों में समस्या समाप्त होने के बाद पूजा करने का संकेत दिया जाता है | यदि निश्चित अवधि में समस्या का निवारण नहीं हुआ तो पुन: जागर आयोजित की जाती है | कुल मिलाकर इसमें पहली जागर की बात दोहराई जाती है साथ ही एक सप्ताह की निश्चित अवधि या जितना शीघ्र हो सके पूजा आयोजन का आदेश दिया जाता है | पूजा के लिए आवश्यक सामग्री मंगाई जाती है जिसमें एक या अधिक बकरियां, मुर्गे और शराब का होना जरूरी है | यह पूजा रात को किसी सुनसान जंगल या गधेरे में होती है जहां मांस- मदिरा मिश्रित उन्माद में ये लोग रात्रि पिकनिक मनाते हैं |

     जागरों के आयोजन तथा पूजा में अथाह धन फूंकने के बाद भी संकट का निवारण नहीं होता तो पुन: जागर आयोजन किया जाता है जिसमें डंगरिया दो टूक शब्दों में कहता है, “तुम्हारे भाग्य का दुःख है भोगना ही पड़ेगा ।” एक लम्बे अंतराल तथा धन की बरबादी के बाद डंगरिये के ये शब्द सुनकर निराशा ही हाथ लगती है | कई बार तो उस रोगी की मृत्यु भी हो जाती है जिसके ठीक होने के लिए जागरों का आयोजन किया जाता है |

     उत्तराखंड में लोक विश्वास का रूप लिए हुए यह अंधविश्वास अपनी जड़ जमाये हुए है जिसका शिकार महिलाएं तथा गरीब ही अधिक होते हैं | अशिक्षा और अन्धविश्वास की क्यारी में उपजी यह प्रथा विरोध करने वालों को नास्तिक कहने में देर नहीं करती | कई जागरों और पूजा के पश्चात वांच्छित परिणाम नहीं मिलने का कारण डंगरियों से पूछना उन्हें ललकारने जैसा है | ऐसा जोखिम यहां कोई उठाने को तैयार नहीं | लकीर के फ़कीर बन कर सब मूक दर्शक बने रहते हैं | डंगरियों का डर समाज में इस तरह घर कर गया है कि लोग इनकी खुलकर भर्त्सना भी नहीं कर सकते | लोग सोचते हैं यदि इनसे तर्क करेंगे तो कहीं ये कुछ उलटा-पुल्टा न कर दें | अधिकांश डंगरिये- जगरिये निरक्षर या कम पढ़े लिखे होते हैं | ये भ्रम और अन्धविश्वास फैलाने में दक्ष होते हैं | सबसे बड़ी विडम्बना तो यह है कि शिक्षित समाज भी इन्हें देखकर  मसमसाते अवश्य रहता है परन्तु खुलकर विरोध नहीं करता |

     अच्छा तो यह होता कि लोग रोगी को चिकित्सक या वैद्य के पास ले जाते | कैसी भी जटिल समस्या क्यों न हो उससे जूझने के लिए स्वयं को तैयार करते, असफलता से पुनः लड़ते, साहस- धैर्य- बुद्धि से समस्या का समाधान ढूंढते, भाग्य के भरोसे न बैठकर परिश्रम करते, स्वयं में बदलाव लाते, क्रोध- अव्यवहारिकता- स्वार्थ तथा चमत्कार की आशा को त्यागकर सहिष्णु, आशावादी, व्यवहारिक, निःस्वार्थी तथा कर्म में विश्वास करने वाले बनते | साथ ही इस सत्य को भी समझते कि दुःख- सुख एक दूसरे से जुड़े रहते हैं |अंत में एक बात और- जागर समर्थक समाज में ज्ञान वर्धक एवं कर्म की ओर अग्रसर करने वाले आयोजनों का कोई अर्थ नहीं होता | यदि गांव में रामलीला, भगवत प्रवचन, कोई सांस्कृतिक समारोह, देशप्रेम की बात तथा जागर अलग- अलग स्थानों में एक ही रात्रि या दिन में आयोजित हो रहे हों तो सबसे अधिक उपस्थिति या भीड़ जागर में ही होती है | शिक्षा और कर्म के खरल में सफलता की बूटी हमें स्वयं तैयार करनी होगी |

          इस वेदना की कथा अनंत है | “पढ़े लिखे अंधविश्वासी बन गए लेकर डिग्री ढेर/ अन्धविश्वास के मकड़जाल में फसते न लगती देर/, पण्डे ओझा गुणी तांत्रिक बन गए भगवान्/ आँख मूंद विश्वास करे जग त्याग तथ्य विज्ञान |”

पूरन चन्द्र काण्डपाल
25.12.2020

Wednesday 23 December 2020

Jagar naheen marj ki dawa 1 :जागर नहीं मर्ज की दवा - 1

बिरखांत -349 :  जागर नहीं है मर्ज की दवा (i)

     देवताओं की भूमि कहा जाने वाला प्रदेश उत्तराखंड प्राकृतिक सौन्दर्य, स्वच्छ वातावरण तथा अनगिनत देवालयों के लिए प्रसिद्ध है | यहां के निवासी परिश्रम, कर्तव्यनिष्ठा, ईमानदारी, त्याग, देशप्रेम तथा जुझारूपन के लिए भी जाने जाते हैं | साक्षरता में भी अब यह प्रदेश अग्रणीय हो रहा है | रोजगार के अभाव में पलायन थमने का नाम नहीं ले रहा | इस पहाड़ी राज्य में पहाड़ से भी ऊँची रुढ़िवादी परम्पराएं यहां के निवासियों को आज भी घेरे हुए है |

     ऐसी ही एक परम्परा है ‘जागर’ जिसे यहां ‘जतार’ या ‘जागरी’ के नाम से भी जाना जाता है | पूरे राज्य में यह परम्परा भिन्न-भिन्न नाम से समाज को अपने मकड़जाल में फंसाए हुए है | सभी जाति- वर्ग का गरीब- अमीर तबका इस रूढ़िवाद में जकड़ा हुआ है जिसे इस जकड़ का तनिक भी आभास नहीं है |

     इस तथाकथित समस्या समाधान के लिए आयोजित की जाने वाली ‘जागर’ में मुख्य तौर से तीन व्यक्तियों का त्रिकोण होता है | पहला है ‘डंगरिया’ जिसमें दास द्वारा ढोल या हुड़के की ताल- थाप पर देवता अवतार कराया जाता है जिसे अब ‘देव नर्तक’ कहा जाने लगा है | दूसरा है ‘दास’ जिसे ‘जगरिया’ अथवा ‘गुरु’ भी कहा जाता है | यह व्यक्ति जोर- जोर से बिजेसार (ढोल) अथवा हुड़का (डमरू के आकार का स्थानीय वाद्य ) बजाकर वातावरण को कम्पायमान कर देता है |  इसी कम्पन में डंगरिये में देवता अवतरित हो जाता है | देवता अवतार होते ही डंगरिया भिन्न- भिन्न भाव- भंगिमाओं में बैठकर अथवा खड़े होकर नाचने लगता है | इस दौरान ‘दास’ कोई लोकगाथा भी सुनाता है | लोक चलायमान यह गाथा जगरियों को पीढ़ी डर पीढ़ी कंठस्त होती है | वीर, विभत्स, रौद्र तथा भय रस मिश्रित इस गाथा का जगरियों को पूर्ण ज्ञान नहीं होता क्योंकि सुनी- सुनाई यह कहानी उन्हें अपने पुरखों से विरासत में मिली होती है | यदि इस गाथा में कोई श्रोता शंका उठाये तो जगरिया उसका समाधान नहीं कर सकता | उसका उत्तर होता है “ बुजर्गों ने इतना ही बताया |”

     ‘जागर’ आयोजन का तीसरा कोण है ‘सौंकार’ अर्थात जो व्यक्ति अपने घर  में जागर आयोजन करवाता है | ‘सौंकार’ शब्द ‘साहूकार’ का अपभ्रंश है जिसका अर्थ है धनवान या ऋण देनेवाला | जागर आयोजन करने वाला व्यक्ति अक्सर गरीब होता है परन्तु जागर में उसे ‘सौंकार’ फुसलाने के लिए कहा जाता है ताकि वह इस अवसर पर खुलकर धन खर्च करे |

     ‘जागर’ आयोजन का कारण है आयोजक किसी तथाकथित समस्या से ग्रस्त है जिसका समाधान जागर में करवाना है | बीमार पड़ने, स्वास्थ्य कमजोर रहने, कुछ खो जाने, परिजन का आकस्मिक निधन हो जाने, पशुधन सहित चल- अचल सम्पति का नुकसान होने, पुत्र-पुत्री के विवाह में विलम्ब होने, संतान उत्पति में देरी अथवा संतान नहीं होने, संतान का स्वच्छंद होने, संतान उत्पति पर जच्चा को बच्चे के लिए दूध उत्पन्न नहीं होने, विकलांग शिशु के जन्म लेने, तथाकथित ऊपर की हवा (मसाण –भूत, छल- झपट ) लगने, किसी टोटके का भ्रम होने, दुधारू पशु द्वारा दूध कम देने, जुताई के बैलों की चाल में मंदी आने, तथाकथित नजर (आँख) लगने, परीक्षा में असफल होने, नौकरी न लगने, परिजन के शराबी- नशेड़ी- जुआरी बनने, सास- बहू में तू- तड़ाक होने अथवा मनमुटाव होने, परिवार- पड़ोस में कलह होने, पलायन कर गए परिजन का पत्र अथवा मनीआर्डर न आने अथवा आशानुसार उसके घर न आने जैसी आए दिन की समस्याएं जो वास्तव में समस्या नहीं बल्कि जीवन की सीढ़ियां हैं जिनमें हमें चलना ही होता है, जागर आयोजन का प्रमुख कारण होती हैं | वर्षा नहीं होने, आकाल पड़ने अथवा संक्रामक रोग फ़ैलने पर सामूहिक जागर का आयोजन किया जाता है जिसका अभिप्राय है रुष्ट हुए देवताओं को मनाना परन्तु ऐसा कम ही देखने को मिला है जब जागर के बाद इस तरह के संकट का निवारण हुआ हो |

     व्यक्तिगत जागर पर विहंगम दृष्टिपात करने पर स्पष्ट होता है कि उपरोक्त में से किसी भी समस्या के पनपते ही समस्या-ग्रस्त (दुखिया) व्यक्ति डंगरिये तथा जगरिये से सलाह- मशवरा करके जागर आयोजन की तिथि निश्चित करता है | पूरा गांव जागर वाले घर में एकत्रित हो जाता है | समस्या समाधान की उत्सुकता सबके मन में बनी रहती है | दास- डंगरिये को भोजन कराया जाता है | (अब शराब भी पिलाई जाती है ) | धूप- दीप जलाकर तथा गोमूत्र छिड़क कर स्थान को पवित्र किया जाता है | डंगरिये को आसन लगाकर बैठाया जाता है | ठीक उसके सामने जगरिया और उसका साथी तासा (रौटी) वाला बैठता है | डंगरिये को भंगड़ी (सुल्पे में तम्बाकू के ऊपर छोटे छोटे जलते हुए कोयले रखे जाते हैं ) दी जाती है जिसे वह धीरे- धीरे कश लगाकर पीते रहता है | पंच- कचहरी (वहाँ मौजूद जन समूह ) में धूम्रपान का सेवन खुलकर होता हे | नहीं पीने वाला भी मुफ्त की बीड़ी- सिगरेट पीने लगता है | इसी बीच जगरिया अद्वायी (गाथा) सुनाने लगता है | शेष भाग अगली बिरखांत  350 में...

पूरन चन्द्र काण्डपाल

24.12.2020

Tuesday 22 December 2020

Kisaan aaymhatya kisaan diwas : किसान आत्महत्या किसान दिवस

खरी खरी -761 : क्यों आत्महत्या करते हैं किसान ? (आज किसान दिवस)

     हमारे लिए अन्न का निवाला पैदा करने वाला किसान अपनी फसल का सही मूल्य नहीं मिलने, फसल का समय पर क्रय नहीं होने और साहूकार का ऋण नहीं चुकाने से दुखित होकर या तो आत्महत्या कर रहा है या धीरे- धीरे खेती छोड़ रहा है । आत्महत्या अच्छी बात नहीं है फिर भी यह सिलसिला थम नहीं रहा ।  पांच राज्यों- महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में किसान आत्महत्या दर अधिक है ।

     उपज का न्यूनतम मूल्य नहीं मिलने, फसल का क्रय न होने और भंडारण सुविधा नहीं होने के कारण हर रोज लगभग ढाई हजार किसान खेती छोड़ने पर मजबूर हैं । विशेषज्ञों के अनुसार विगत कुछ वर्षों में लगभग 3.2 करोड़ गांव वाले जिसमें किसान अधिक हैं, गांव छोड़कर शहरों की ओर पलायन कर चुके हैं जिनमें अधिकांश ने अपनी जमीन और घर-बार भी बेच दिया है ।

    वर्तमान में देश के कई राज्यों में किसान की प्रतिमाह औसत आय पांच हजार रुपए से कम है । कुछ राज्यों में चार हजार रूपए से भी कम है ।  किसान की आमदनी तो दूर उसकी फसल की लागत भी नहीं मिलने से उसका जीवन यापन मुश्किल हो रहा है । केंद्र और राज्य सरकारों को इस गम्भीर समस्या के निवारण पर शीघ्र कदम उठाना चाहिए । यदि कहीं बम्पर फसल होती है तो उसके खरीदने का तुरंत उचित प्रबन्ध होना चाहिए अन्यथा वह दिन दूर नहीं जब किसान निराश होकर खेती करने से सन्यास न ले ले ।

      मौजूदा किसान एकता मंच आंदोलन जिसको दबाने के लिए हरियाणा की खट्टर सरकार ने ऐसा व्यवहार किया जैसे कोई आक्रांता देश में घुस गए हों, का आज 23 दिसंबर किसान दिवस के अवसर पर 28वां दिन है । बुलन्द हौसले से सराबोर यह किसान आंदोलन गैर राजनैतिक है भलेही कई राजनैतिक दल इस आंदोलन का समर्थन कर रहे हैं । केंद्र सरकार को किसानों की मांग को समझना चाहिए और उन्हें संतुष्ट करके कड़ाके की इस ठंड से बचाना चाहिए क्योंकि दो दर्जन से अधिक किसान ठंड से मौत के ग्रास बन गए बताए जाते हैं । किसानों के आंदोलन में अनगिनत बुजुर्ग किसान और महिलाएं भी हैं । किसान की उगाई हुई रोटी से गरीब, अमीर, जनता, नेता, पुलिस, जवान सहित पूरे देश का जीवन गतिमान है ।

      किसान के दर्द को समझने वाले वे भी इस देश के ही नेता थे जो 'जय जवान जय किसान ' का नारा दे गए और बड़ी सहानुभूति से किसानों की समस्या को सुनते थे । आज हम इस नारे को नहीं समझ पा रहे हैं । जितने दिन यह आंदोलन रहेगा उससे देश का नुकसान ही होगा जिसकी भरपाई नहीं हो सकेगी । कुछ तो बात है जो देश के सभी किसान उन तीन कृषि बिलों का विरोध कर रहे हैं जो उनसे बिना पूछे पारित कर दिए गए । अतः सरकार का रवैया नरम होना चाहिए जिससे गतिरोध शीघ्र दूर हो और सड़क पर उच्च मनोबल के साथ विगत 28 दिन से डेरा जमाए किसान अपने खेत - खलिहान की ओर कूच करें । इसे जीत और हार का मुद्दा नहीं बनाना चाहिए क्योंकि सवाल जनता का है, किसान का है और कुल मिलाकर पूरे देश का है । पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह (जन्म दिन 23 दिसंबर) को विनम्र श्रद्धांजलि के साथ किसान दिवस की सभी को बधाई और शुभकामना ।

(इन पंक्तियों के लेखक की कविता ' अन्नदाता कृषक ' जिसे कविता संग्रह ' स्मृति लहर ' से लिया गया है, देश में कक्षा 7 के विद्यार्थियों को पढ़ाई जाती है । किसान का जितना भी सम्मान किया जाए वह कम है क्योंकि अन्न के दाने से ही हमारा जीवन गतिमान है ।)

पूरन चन्द्र कांडपाल
23.12.2020