Saturday 29 September 2018

Apraadh bodh : अपराध बोध

खरी खरी - 314 : अपराध बोध ही प्रायश्चित

एक बड़ा अपराध
फिर से कर लिया है,
कत्ल अपनी आत्मा का
सह    लिया    है ।

नजरों में लोगों की मैं
एक भला इंसान हूं,
कर्म ऐसा कर लिया है
जैसे मैं शैतान हूं ।

आंखें अपने आप से मैं
अब मिला सकता नहीं,
आत्मा झकझोरे मुझको
बोल कुछ सकता नहीं ।

हो गया अपराध जब
कंपकपाने मैं लगा,
जान जाए जग न सारा
सकपकाने मैं लगा ।

नहीं जानता क्यों मुझे वो
क्षमा यों ही कर गया,
निगाहों के आगे उसके
जीते जी मैं मर गया ।

विश्वसनीयता आज से वह
कैसे करेगा जगत पर,
विश्वास के क्षण पर उसे
आ जाऊंगा मैं ही नजर ।

बिना मांगे, मौन हो वो
क्षमा मुझे कर गया,
है उच्च क्षमा करने वाला
बात साबित कर गया ।

घृणा अपने आप से
हृदय मेरा अब कर रहा,
वो क्षमा मुझे कर गया
पर कर नहीं मैं पा रहा ।

प्रायश्चित अपराध का
करना जो चाहो तुम अभी,
पुनरावृति इस रोग की
होने न देना तुम कभी ।

(अपराध का बोध होने पर ऐसा होता है, यह महसूस करने की बात है । किसी भी अपराध का प्रायश्चित है उसे दोहराया न जाय।)

पूरन चन्द्र काण्डपाल
30.09.2018

Friday 28 September 2018

Dr shamsher singh bisht : डॉ शमशेर सिंह बिष्ट

जनांदोलनों के पुरोधा डा शमशेर सिंह बिष्ट को श्रद्धांजलि

        देश में जनांदोलनों के अग्रणी पुरोधा डा शमशेर सिंह बिष्ट  को  28 सितम्बर को दिल्ली में संसद के समीप प्रेस क्लब आफ इंडिया में पत्रकारों, राजनेताओं, समाजसेवियों, साहित्यकारों ने भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित की। दिवंगत बिष्ट जी के सम्मान में दो मिनट का मौन रखते हुए उनके बताये रास्ते पर चलने का संकल्प लिया। श्रद्धांजलि सभा मेें उपस्थित सभी सदस्यों ने डा शमशेर बिष्ट की तस्वीर पर पुष्प अर्पित करके अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित किया। श्रद्धांजलि सभा का संचालन अवतार नेगी व अध्यक्षता डा शमशेर सिंह बिष्ट को अपना आदर्श मानने वाले राज्य सभा सांसद प्रदीप टम्टा ने की।

      इस श्रद्धांजलि सभा में सम्मलित प्रमुख डा बिष्ट के संघर्षों के साथी सांसद प्रदीप टम्टा, राज्य आंदोलनकारी देवसिंह रावत, कांग्रेसी नेता धीरेन्द्र प्रताप, आप नेता बचन सिंह धनोला, माले नेता पुरूषोतम शर्मा व गिरजा पाठक,  प्रो .प्रकाश उपाध्याय,  पत्रकार श्याम सिंह रावत, हबीब अख्तर व उमाकांत लखेडा, सुनील नेगी,  चंदन डांगी, एमएमसी शर्मा,  भाजपा नेता एस के शर्मा,  पत्रकार सीएम पपने,  महेश चंद्रा शर्मा,  बीएन शर्मा, बचन सिंह धनोला,चारू तिवारी, उक्रांद नेता प्रताप शाही आदि ने अपनी शब्दांजलि अर्पित कर डा शमशेर सिंह बिष्ट को उतराखण्ड, देश व पूरी मानवता के लिए समर्पित पुरोधा बताया।

      गौरतलब है कि  4 फरवरी 1947 को जन्में डा शमशेर सिह बिष्ट का निधन 71 वर्ष की उम्र में  22 सितम्बर 2018 की तडके 4 बजे अपने अल्मोडा स्थित आवास में हुआ। डा शमशेर सिंह बिष्ट लम्बे समय से अस्वस्थ थे। दिवंगत बिष्ट का अंतिम संस्कार अल्मोड़ा विश्वनाथ घाट पर किया गया। उनकी चिता को मुखाग्नि बड़े पुत्र जयमित्र बिष्ट ने मुखाग्नि दी। शोकाकुल परिवार में डा बिष्ट की पत्नी रेवती बिष्ट (केन्द्रीय विद्यालय रानीखेत से  प्राधानाचार्य के पद से सेवा निवृत ), बडा बेटा जय मित्र व बहु इंदु बिष्ट तथा छोटा बेटा अजय मित्र व बहु अदिति बिष्ट के अलावा डा बिष्ट की छोटी बहिन माधवी देवी सहित अन्य परिजन हैं।

       डा शमशेर सिंह बिष्ट जनसरोकारों के लिए अग्रणी जनयोद्धा होने के साथ वरिष्ठ पत्रकार भी रहे। उतराखण्ड में नशा नहीं रोजगार दो, वन बचाओ, गढवाल व कुमाऊं विश्व विद्यालय, उतराखण्ड आंदोलन,, आजादी की तीसरी लडाई सहित अनैक आंदोलनों से प्रणेता रहे।  उनके नेतृत्व में उतराखण्ड जन संघर्ष वाहिनी ने उतराखण्ड के जनांदोलनों को नई दिशा देने के साथ अनैक प्रबुद्ध जनों को जनांदोलनों से जोडा। 1972 में डा बिष्ट ने अल्मोडा में पानी की समस्या के लिए आंदोलन की जो अलख जगाई थी उसके बाद वे पूरी उम्र आंदोलनों में ही पूरी तरह समर्पित रहे। नशा नहीं रोजगार दो, गढवाल व कुमायू विवि गठन आंदोलन,  जंगल,  भू व शराब माफियाओं के खिलाफ वे ताउम्र संघर्ष करते रहे। 

     1974 में डा सुन्दर लाल बहुगुणा के सुझाव पर गढवाल व कुमायूं मण्डलों के क्षेत्रों में व्यापक जनजागृति व एकजूटता के लिए उन्होने व प्रो. शेखर पाठक ने कुमायूं मण्डल तथा  कुंवर प्रसून व प्रताप शिखर ने गढवाल मण्डल का नेतृत्व करते हुए असकोट से आराकोट  तक की 800 किमी लम्बी पदयात्रा 45 दिन में पूरी की । इस यात्रा को डा बिष्ट अपने जीवन का सबसे महत्वपूर्ण मोड़ मानते हैं। 1972 में अल्मोडा महाविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष रहे डा बिष्ट गढवाल व कुमाऊं विश्वविद्यालय बनाये जाने के आंदोलन में सक्रिय रहे। 1974 में डा बिष्ट  ने अर्थशास्त्र से पीएचडी करने के लिए जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में शोध छात्र के रूप में 6 माह तक अध्ययन किया और उसके बाद पीएचडी की उपाधि कुमायूं विवि से पूरी की।

      डा बिष्ट  ने 1974 से 1978 तक व्यापक रूप से चले वन आंदोलन का नेतृत्व किया। 1978 में उन्होने गोपेश्वर में उतराखण्ड जनसंघर्ष वाहिनी का गठन किया।
जनांदोलनों के ही दौरान वे अपने कुछ साथियों के साथ 26 मार्च 1984 से 3 मई 1984 यानी 38 दिन के लिए अल्मोडा जेल में भी बंद रहे। 1984 में ही वे देश के सबसे प्रतिष्ठित राष्ट्रीय समाचार पत्र जनसत्ता के स्थानीय पत्रकार बन कर जनांदोलनों को नयी धार देने लगे। 1983 में उन्होने टिहरी बांध के विरोध में चले आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई। 1991 में अल्मोडा-पिथोरागढ संसदीय सीट से जद प्रत्याशी के रूप में चुनावी दंगल में उतरे थे। 1993 से उतराखण्ड राज्य आंदोलन में सक्रिय रहे।

     डा शमशेर सिंह बिष्ट केवल उतराखण्ड के जनांदोलनों तक सीमित नहीं थे। वे पूरे देश के जनांदोलनों से जुडे थे। वे स्वामी अग्निवेश व मेघा पाटेकर के करीबी साथी रहे उनके साथ देशभर में जनांदोलनों में जुडे रहते थे।  वे जहां दिल्ली सरकार के मंत्री गोपाल राय के साथ देशभर में आजादी की तीसरी लडाई का देशव्यापी संघर्ष करके एक नया विकल्प बनाने के लिए वर्षों तक समर्पित रहे।

       वे जातिवाद, क्षेत्रवाद, धार्मिक कटरपंथी के साथ भ्रष्टाचार के भी प्रबल विरोधी होने के साथ इसके खिलाफ व्यापक जनांदोलन चलाते रहे। वे लोकतंत्र के वर्तमान स्वरूप से नाखुश थे। डा बिष्ट, हमेशा गरीब, उपेक्षित, मजदूर, मेहनतकश लोगों की आवाज रहे और भ्रष्टाचारियों, शराब, जल जंगल व भू माफियाओं के खिलाफ ताउम्र संघर्ष करने के साथ उनसे दूरी बनाये रखते थे। उतराखण्ड में तीन चार दशक पहले उनके नेतृत्व में चले जनसरोकारों के आंदोलनों की ऐसी गूंज थी कि हर जागरूक छात्र -छात्रायें व सामजसेवी उनके आंदोलनों में जुड कर खुद को शौभागयशाली समझता था। जीवन के  अंतिम समय भी डा बिष्ट भले अस्वस्थता के कारण सडक पर उतर कर संघर्ष करने में खुद को असमर्थ रहे परन्तु वे मन से इस बात से बेहद व्यथित थे कि उतराखण्ड में शराब व राजधानी गैरसैंण न बनाये जाने से बर्बाद हो रहा है।

     श्रद्धांजलि सभा को सफल बनाने वालों में एम एमसी शर्मा, कुशाल जीना, अनिल पंत, महेन्द्र रावत, मोहन जोशी आदि प्रमुख थे। श्रृद्धांजलि अर्पित करने वालों में देश के प्रख्यात साहित्यकार मंगलेश डबराल, वरिष्ठ पत्रकार बाबा विजयेन्द्र,  राजेन्द्र रतूडी,  कांग्रेसी नेता राजेश्वर पैेनूली व नंदन रावत, खुशहाल सिंह बिष्ट   डा एस एन बसलियाल, उक्रांद नेता कुंदन सिंह बिष्ट,यू एस नेगी, कांग्रेसी नेता ईश्वर रावत, जे पी थपलियाल, महेश प्रकाश, राजा खुगशाल, डा के एस रावत, साहित्यकार पूरन चंद्र काण्डपाल, विनोद चंदोला, महावीर सिंह पुष्पा डांगी, खेमराज कोठारी, हनीफ मोहम्मद, पत्रकार बसंत पाण्डे व हरीश लखेडा, कैलाश धूलिया, ग्यान भद्रे,  किशोर रावत,  नीरज बवाडी शिशिभूषण खण्डूडी, विनोद ढोंडियाल, सुरेन्द्र सिंह नेगी, देवसिंह फोनिया,  अमरचंद, पत्रकार प्रदीप बेदवाल, अनु पंत, भगत सिंह नेगी, नीरज जोशी महेन्द्र वोरा, अमित कुन्द्रा, उमेश चंद पंत, वी पी भट्ट, पुरूषोतम चैनियाल, राकेश धस्माना, एस एस नेगी, प्रताप थलवाल, कांग्रेसी नेता रामेश्वर गोस्वामी, शिव प्रसाद जोशी, फिल्म निर्माता मनोज चंदोला, मेजर एस के ठाकुर ,  सहित अनैक प्रमुख आंदोलनकारी सम्मलित थे।

(संपादित, साभार देवसिंह रावत, संपादक प्यारा उत्तराखंड,नई दिल्ली )

पूरन चन्द्र काण्डपाल
29.09.2018

Bodhgaya : गया और बोधगया

बिरखांत- 231 : गया और बोधगया में जो देखा

     कुछ महीने पहले दिल्ली से रांची, रामगढ़ (झारखण्ड) होते हुए गया (बिहार) की यात्रा का अवसर मिला | दिल्ली से रांची लगभग 1300 किमी, रांची से रामगढ 45 किमी और रामगढ़ से गया 180 किमी दूर है | रांची और रामगढ़ झारखण्ड राज्य में हैं जबकि गया बिहार राज्य में है | इस यात्रा के दौरान झारखण्ड क्षेत्र के जंगल भी देखे जिनमें चौड़ी पत्तियों के ही पेड़ थे | उत्तराखंड की तरह वहाँ के घने वनों में चीड़ के वृक्ष नहीं देखे गए |

     फल्गू नदी के किनारे स्तिथ गया शहर की मुख्य दो जगहों का भ्रमण किया – गया (विष्णुपद मंदिर) और बोधगया ( महात्मा बुद्ध का ज्ञान प्राप्ति  स्थान ) | गया से बोधगया की दूरी लगभग 15 किमी है | गया पहुँचते ही पंडो ने घेर लिया | वे शराद करने के लिए बाध्य करने लगे | उन्हें मैंने समझाया, “मेरी आस्था शराद के कर्मकांड में नहीं है | मैं यहाँ किसी धार्मिक कारण से नहीं बल्कि ऐतिहासिक, सामाजिक तथ्य जानने और प्रकृति दर्शन के लिए आया हूँ | मैं पितरों का स्मरण अवश्य करता हूँ, उनमें मेरी श्रद्धा है परन्तु शराद- पिंडदान में नहीं |”

     वहाँ का दृश्य देख कर मैं हतप्रभ था | जहां-तहां पिंडों के ढेर लगे थे | कोई मुंडन करवा रहा था तो कोई किसी भी स्थान पर बैठ कर शराद करवा रहा था | साथ ही कई प्रकार की प्रथा- परम्परा और मान्यता की बात कह कर लोगों को रिझाया- फंसाया जा रहा था | वहाँ गंदगी की किसी को प्रवाह नहीं थी | फर्स काला हो गया था, जहां- तहां कुछ न कुछ शराद में प्रयोग होने वाली वस्तुएं बिखरी थी | भिखारी भी अपना रोना रो रहे थे | अंततः पत्नी ने कुछ दान गरीबों को दिया और मेरे आग्रह पर कुछ दान केवल दानपात्रों में ही डाला जिसे मंदिर समिति उपयोग करती है |

     जहाँ श्रद्धा की बात हो तो उसकी आगे कुछ कहना उचित नहीं | यह श्रद्धा है या अंधश्रद्धा, इसका फैसला व्यक्ति को ही अपने विवेक से करना होता है | मेरी पिंडदान के कर्मकांड में आस्था नहीं है | इसके बजाय हमें पितरों के पुण्य स्मृति में कुछ समाजोपयोगी नेक कार्य करने चाहिए | शराद के पिंड वहीं पर पड़े रहते हैं और धन पंडा ले जाता है | मैं भी अपने पितरों का स्मरण करते हुए पिछले बारह वर्षों से अपने गृह क्षेत्र के कुछ मेधावी बच्चों को प्रतिवर्ष स्वतन्त्रता दिवस पर सम्मानित करता हूँ |

     जहां तक मैं समझता हूँ स्वर्ग नाम का कोई स्थान नहीं है जहां पितरों का वास बताया जाता है | यह एक काल्पनिक विचार है | मृत्यु के बाद देह पंचतत्व में मिल जाती है और आत्मा अजर-अमर है और अदृश्य है | कोई भी जीव जो पैदा होता है वह एक दिन मरता है | उसकी मृत्यु के बाद कर्मकांड के बजाय एक श्रधांजलि ही काफी है और मृतक के नाम पर कुछ जनहित कर्म सबसे उत्तम है | गया में पंडों का तमाशा देख कर ऐसा लगा जैसे वे प्रत्येक श्रद्धालु को मिलकर लूट रहे हैं | इस लूट को समझने की जरूरत है |

     बोधगया स्थान गया से 15 किमी दूर है | यहाँ एक पीपल वृक्ष है, बुद्ध की 80 फीट ऊँची मूर्ति और बौध श्रद्धालुओं के लिए सुमिरन के कई बड़े- बड़े बैठने के स्थान हैं | पंडों जैसी लूट यहाँ नहीं है | दान पात्रों में दान यहाँ भी दिया जाता है | गया की तरह यहाँ न शोर था और न गन्दगी | लोग महात्मा बुद्ध के प्रवचनों के आधार पर सुमिरन करते देखे गए | इन श्रद्धालुओं में अधिकाँश विदेशी थे जिन्हें हम बुद्धिष्ट या बौध मतावलंबी कह सकते हैं |

     अंत में यही कहना चाहता हूँ कि हमारे किसी भी धर्मस्थल पर (गया सहित ) धर्म के नाम पर अंधविश्वास की डोर फंसा कर लूट तो होती ही है, गन्दगी भी बहुत होती है | मुझे देश के कई गुरद्वारों के दर्शन का अवसर भी मिला जहां की स्वच्छता मन-मोह लेती है और अंधविश्वास की लुछालुछ भी वहाँ देखने को नहीं मिलती | श्रद्धा होना ठीक है परन्तु अंधश्रद्धा में डूबना अनुचित है | हम लुटते हैं, लुटने के बाद मसमसाते हैं और फिर भी स्वयं को लुटने देते हैं | यह कैसी श्रद्धा है ? इस पर जरूर मंथन होना चाहिए | अगली बिरखांत में कुछ और ...

पूरन चन्द्र काण्डपाल
28.09.2018

Wednesday 26 September 2018

2 oct ko aisa mat karo : 2 अक्टूबर को ऐसा मत करो यारो

खरी खरी -313 : 2 अक्टूबर को ऐसा मत करो यारो !!

      1 अक्टूबर 1994 की रात जब उत्तराखंड से हमारी बहनें राज्य की मांग के लिए अहिंसक आंदोलन करने दिल्ली की गद्दी को चेताने के लिए बसों से आ रही थी तो उन्होंने सोचा भी नहीं होगा की कंस के राक्षस 2 अक्टूबर की भोर को रामपुर तिराहे पर बांगोवाली गांव के पास उनका अपमान करेंगे । उनके हाथ में उस दिन दराती भी नहीं थी अन्यथा उन नरपिशाचों के चिथड़े उड़ गए होते । उन्हें पहली बार कमर में दराती नहीं होने की कमी खली ।

    इसी तरह 1994 के राज्य आंदोलन में 42 उत्तराखंडी शहीद हो गए । इन लोगों ने आंदोलन में कूदते समय यह नहीं सोचा होगा कि आज वे शहीद हो जॉयेंगे । इन की वीरगति से इनके घरों के दीपक बुझ गए । सोचिए क्या बीती होगी इन परिवारों पर । अपने लिए नहीं मरे ये । ये उत्तराखंड राज्य के लिए मरे । इन्हें नमन ।

        1- 2 अक्टूबर की उस काली रात को  उत्तराखंड के लिए भुलाना मुश्किल है । भूलेगा भी नहीं क्योंकि दोनों ही घटनाएं दुःखद, शर्मनाक और निंदनीय थीं । ऐसे दिन पता नहीं उत्तराखंड के कुछ लोग रंगारंग आयोजन क्यों कर रहे हैं यह समझ से परे है ? कभी भी नाचो-गाओ परन्तु 2 अक्टूबर को किसी के जख्मों पर नमक मत छिड़को । यदि आप आत्मा में विश्वास रखतें हैं तो उन 42 शहीदों की आत्मा के बारे में भी सोचो । देश की 2 महान हस्तियों, गांधी- शास्त्री को 2 अक्टूबर को विनम्र श्रद्धांजलि के अलावा उत्तराखंड के लिए यह दिन कालादिवस के रूप में ही है । 'सबको सन्मति दे भगवान...."

पूरन चन्द्र काण्डपाल
27.09.2018

Tuesday 25 September 2018

Doha saptak : दोहा सप्तक

मीठी मीठी - 164 : दोहा सप्तक (कुमाउनी)

(‘मुकस्यार’ किताब बटि )

कविता मनकि बात बतै दीं,
कसै उठी हो उमाव |
बाट भुलियाँ कैं बाट बतै दीं,
ढिकाव जाई कैं निसाव||

द्वि आखंर हंसि बेर बलौ,
बरसौ अमृत धार |
गुस्स्म निकई कडू आंखर,
मन में लगूनी खार ||


लालच जलंग पाखण्ड झुटि,
रागद्वेष अंहकार |
अंधविश्वास अज्ञान भैम,
डुबै दिनी मजधार ||


तमाकु सुड़ति शराब नश,
गुट्क खनि धूम्रपान |
चुसनी माठु-माठ ल्वे हमर,
बेमौत ल्ही लिनी ज्यान ||


धरो याद इज बौज्यू कैं,
शिक्षक सिपाइ शहीद |
दुखै घड़िम ल्हे भुलिया झन,
धरम करम उम्मीद ||

याद धरण उ मनखी चैंछ,
मदद हमरि करी जैल |
हमुल मदद जो कैकि करि,
उकैं भुलण चैं पैल ||

देशप्रेम जति घटते जां,
कर्म संस्कृति क नाश |
निहुन कभैं भल्याम वां,
सुख शांति हइ टटास ||

पूरन चन्द्र काण्डपाल
26.09.2018

Manthan se soch badale : मंथन से सोच बदले

खरी खरी - 312 : मंथन से सोच बदलती है।

     वर्ष 1975 -76 के दौरान मैं पूर्वोत्तर के एक सीमावर्ती राज्य में सेवारत था । तब वहां  के गावों की सेनिटेसन (स्वच्छता) हालात ठीक नहीं थे । लोग अपने घर के पास ही खुले में शौच करते थे । उस शौच से उनके सूवर पलते थे लेकिन गन्दगी बहुत थी । स्वच्छता अभियान के दौरान एक दुभाषिये के साथ मुझे वहां भेजा गया । मैंने उन लोगों को खुले में शौच से  होने वाले सभी दुष्प्रभावों के बारे में समझाया और सेनिटरी इंजीनियरिंग के तरीके से स्थानीय हालात को देखकर शैलो तथा डीप ट्रेंच लैट्रिन बनाने का डिमोंस्ट्रेसन दिया ।

     गांव वाले यह सब देख-सुन कर मुझ से नाराज हो गए । उनका कहना था, "ये आदमी हमारे सूवरों को मारना चाहता है ।" दुभाषिये ने मुझे सारी कहानी समझाई । इसके बाद मैंने उन्हें मक्खियों से होने वाले, जल -जनित रोग तथा कृमिरोग के बारे में समझाया । वहां कई लोग इन रोगों से ग्रसित भी थे । गांव के मुखिया, दुभाषिये के सहयोग और मेरे प्रयास से उन लोगों ने खूब मंथन किया और खुले में शौच करना बंद कर दिया ।

      एक महीने के बाद स्वास्थ्य निदेशक के आदेश से मुझे उस क्षेत्र के मूल्यांकन के लिए पुनः भेजा गया । गांव की दशा बदल चुकी थी । गांव से मक्खियों की भनभनाहट दूर हो चुकी थी और मेरे प्रति उनकी नाराजी भी दूर हो चुकी थी । इस चर्चा से मैं कहना चाहता हूं कि यदि लोग मंथन करें तो वे अवांच्छित प्रथा- परम्परा और अंधविश्वास के सांकलों को तोड़ सकते हैं ।

     यह भी बताना चाहूंगा कि पी एम साहब का कथन, "जो मुंह से तो वंदेमातरम कहते हैं और धरती में जहां-तहां कूड़ा डालते हैं, यह वंदेमातरम नहीं है" बिलकुल सत्य और सटीक है । हम सब देश के स्वच्छता अभियान को जहां -तहां कूड़ा डाल कर पलीता लगा रहे हैं । स्मरण रहे कि स्वच्छता अभियान कोई नया नहीं है । अब तक के सभी 14 प्रधानमंत्रियों और 14 राष्ट्रपतियों ने इसकी चर्चा की है और इसे गति दी है ।

पूरन चन्द्र काण्डपाल
25.09.2018

Sunday 23 September 2018

Pitra paksh ashubh kyon : पित्र पक्ष अशुभ क्यों ₹?

खरी खरी - 311  : पितृपक्ष अशुभ क्यों ?

     एक तरफ कुछ लोग कहते हैं कि पितर हमारे देवता हैं, वे सराद पक्ष में स्वर्ग से आकर मृत्युलोक में विचरण करते हैं । दूसरी तरफ वही लोग कहते हैं कि आजकल सराद लगे हैं और कोई भी शुभ काम नहीं करते । पितर हमारे देवता हैं तो पितृपक्ष अशुभ कैसे हो गया ? पहले तो स्वर्ग एक काल्पनिक शब्द है । स्वर्ग कहीं नहीं है । यदि कहीं स्वर्ग होता तो अंकल शैम (अमेरिका) ने वहां कब का कब्जा कर लिया होता ।

     मृत्यु के बाद हमारी पंचतत्व की देह मिट्टी में मिल जाती है और हम मृतक का दाह संस्कार कर देते हैं । जो जन्म लेगा वह एक दिन अवश्य मरेगा । सराद शब्द 'श्रद्धा' का अपभ्रंश है । हम अपने स्वजनों को उनकी जयंती या पुण्यतिथि पर जरूर याद करें । उनके सम्मान में यथाशक्ति सामाजिक कार्य करें या गरीबों अथवा किसी सुपात्र को दान दें । सराद में भात या आटे के पिंड (ढीने) तो वहीं पर रह जाते हैं और धन-द्रव्य पंडित की जेब में जाता है । भलेही पितर अपने जीवन में भूखे रहे हों, ब्राह्मण के लिए भोज बनता है । कोई कौवे को खिला रहा है तो कोई बामण ढूंढ रहा है ।

     जो जीते जी अपने माँ बाप की सेवा न करता हो, उसे ये श्राद्ध कर्म उनके मरने के बाद दिखावे में या डर से करने की जरूरत नहीं है । जब कहीं स्वर्ग है ही नहीं तो फिर सराद में जो पकवान रखे जाते हैं वे तो वहीं पर पड़े रहते हैं । यह एक व्यर्थ का दिखावा है । 'ब्रह्मभोज' के माध्यम से यह पितरों के पास पहुंचेगा' यह कथन एक पाखंड है ।

      पितरों के नाम से यथाशक्ति दान जरूर हो परन्तु यह पिंड बनाना फिर इन पिंडों को हटाना एक आडम्बर है । जब पितर सरादों में पृथ्वी पर आए हैं तो फिर वे सराद में आकर यह सब खाते क्यों नहीं, इसका जबाब कोई नहीं देता । इस भ्रम से ही कुछ लोगों का व्यवसाय चल रहा है । पितरों को सबसे बड़ी श्रध्दांजलि यह है कि हम उनकी प्रत्येक जयंती तथा पुण्यतिथि पर एक पौधा रोपें और उनके निमित अपने स्कूलों में अपनी सामर्थानुसार बच्चों को प्रोत्साहित करें ।

पूरन चन्द्र काण्डपाल
24.09.2018

Kye khabar nhaiti : के खबर न्हैति

खरी खरी -310 : क्ये खबर न्हैति?

हाम ढुंगाक, लुवाक
पितवाक, सुन-चांदी क
द्याप्तां पर
फूल बरसूं रयूं
उनुकैं दूद ल नउं रयूं,
मंदिर में घंटी बजै बेर
फल-फूल-दूद चढूं रयूं।

घरा क ज्यौन द्याप्तां हूं
बलाण नि राय
उनुकैं तरसूं रयूं,
उनु उज्याँ चाण नि राय
पुठ फरकूं रयूं,

द्वि आंखर उनुहैँ लै
जरूर बलौ
उं लै जाल धिति,
हाम बुजरगों हैं
क्यलै नि बलां राय
मैं कैं क्ये खबर न्हैति ?

पूरन चन्द्र काण्डपाल
23.09.2018

Kis devata ko poojein : किस देवता को पूजें

खरी खरी -309 : हम कितने देवता पूजें ?

     देवता तो 33 कोटि के हों या 33 करोड़ । इस पर बहस क्यों हो ? इस बहस से लाभ भी कुछ नहीं । यह अनंत बहस है । यह बहस कभी समाप्त नहीं होगी । हम एक ईश्वर की बात करें । जिसको जो देवता पूजना हो पूजे । ईश्वर/भगवान केवल एक है और वह निराकार है । उसमें विश्वास रखने से हमें ताकत मिलती है, शांति मिलती है और अंहकार दूर रहता है तथा दुःख को सहने की शक्ति मिलती है । यह श्रध्दा का सवाल है । यही आदि औऱ यही अंत । हमने न कभी ईश्वर को देखा है और न हम कभी उससे मिले हैं फिर भी दुख-सुख की घड़ी में उसे अपने स्वार्थ के लिए याद करते आ रहे हैं । इस पर इससे ज्यादा कितनी भी वार्ता करलें अंत में निष्कर्ष यही निकलेगा ।

        हम वर्तमान में जी रहे हैं और पौराणिक युग की चर्चाओं को ही अत्यधिक समय दे रहे हैं । यह बहस क्यों नहीं होती कि देश के बच्चे कुपोषित क्यों हैं ? यह बहस क्यों नहीं हो कि देश अंधविश्वास के घेरे से बाहर कैसे आये ?  यह वार्ता क्यों नहीं होती कि नदियों में विसर्जन सहित सभी प्रकार की गंदगी नहीं गिरे । इस वैज्ञानिक युग में उस धरती की बात नहीं हो रही जो हमारे शोषण से त्रस्त है और जिससे जलवायु का अचानक परिवर्तन हो रहा है । अतः समाज को स्वयं चेतना/सोचना होगा कि हम अपने को किस बहस में उलझाएं ?

      यदि हम सार्थक और जनउपयोगी बहस करेंगे तो सबसे पहले हमारा कोई एक विश्वविद्यालय विश्व के सर्वश्रेष्ठ 250 विश्वविद्यालयों में शामिल होगा (जो अब तक नहीं है ) फिर शायद कोई हमें सपेरों का देश न कह कर विकसित भारत कहने लगे ।  इसके लिए हमें सर्वप्रथम धर्म - सम्प्रदाय के देश में पनपते कलुषित रागों से छुटकारा पाना होगा क्योंकि इससे देश का सौहार्द बिगड़ता है । विश्व गुरु हम अवश्य बनेंगे परन्तु पहले अपने घर को ठीक करना नितांत आवश्यक ।

पूरन चन्द्र काण्डपाल
22.09.2018