Thursday 30 September 2021

Vidhawa : विधवा

खरी खरी - 935 :  विधवाओं की दयनीय दशा

    हमारे देश में  विधवाओं की स्थिति बहुत दयनीय है । धर्म के ठेकेदार उन्हें अशुभ मानते हैं और शुभ अवसरों पर पीछे धकाते हैं । उन्हें कुछ सामाजिक/धार्मिक आयोजनों में भाग लेने से रोका जाता है। अमुक महिला ही अमुक यात्रा में शामिल होंगी कहा जाता है। उनके लिए श्वेत वस्त्र पहनने की अनिवार्यता होती है जबकि समाज में विधुर के लिए कोई पाबंदी नहीं है। शादी की उम्र होने के बावजूद भी उनका पुनर्विवाह नहीं होने दिया जाता और एक परित्यक्त जीवन बिताने पर उन्हें मजबूर किया जाता है । हर साल 23 जून को विधवा दिवस मनाया जाता है ताकि विश्व का ध्यान विधवाओं की समस्याओं की ओर आकृष्ट किया जाय।

      वृंदावन सहित कई शहरों में विधवाओं की दयनीय दशा देखकर सर्वोच्च न्यायालय ने एक जनहित याचिका पर केंद्र और राज्य सरकारों को इस मुद्दे पर गंभीरता से मंथन करने को कहा है । हमारी रुढ़िवादी सोच ने ही विधवाओं को काशी या वृंदावन पहुँचाया है । वैधव्य की मार झेलती इन परित्यक्ताओं को समाज से स्नेह -आदर की जगह तिरष्कार और अपमान मिला है ।

      विधवा विवाह की कानूनी मान्यता होने के बावजूद भी लोग इन्हें अपनाने से कतराते हैं । काशी वृंदावन इन्हें 'स्वर्ग का पड़ाव' बता कर भेजा जाता है। यहां इनकी दुर्गति किसी से छिपी नहीं है । प्रत्येक दृष्टिकोण से इनका शोषण होता है । परवरिश करने की समस्या तथा जायदाद हथियाने के लालच से इनके सम्बन्धी इन्हें यहां भेजते हैं । सरकार कोई ऐसी नीति बनाये जिससे विधवा को अपनाने वालों को प्रोत्साहन मिले और समाज में विधवा का सम्मान हो तथा माता-पिता या सास-ससुर को भी विधवा बेटी या बहू का पुनर्विवाह अवश्य करना चाहिए ताकि उसे परित्यक्त जीवन न बिताना पड़े ।

पूरन चन्द्र काण्डपाल
01.10.2021

Veer Chandra Singh gadhwali : चंदरसिंह गढ़वाली

स्मृति - 650 : वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली

आज 1 अक्टूबर पेशावर विद्रोहक अमर सेनानी वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली ज्यूकि पुण्यतिथि छ । "लगुल" पुस्तक बै उनार बार में लघुलेख याँ उधृत छ ।  अन्यायक विरुद्ध आवाज बुलंद करणी य  वीर योद्धा कैं विनम्र श्रद्धांजलि ।

पूरन चन्द्र काण्डपाल
01.10.2021

Hamari bhasha : हमरि भाषा।

मीठी मीठी - 649 : हमरि भाषा भौत भलि

     हमरि भाषा कुमाउनी-गढ़वाली लगभग 1100 वर्ष पुराणि छ । यैक संदर्भ हमर पास मौजूद छीं । कत्यूरी और चंद राजाओं क टैम में य राजकाज कि भाषा छी । आज लै करीब 400 लोग  कुमाउनी में लेखनी जनर के न के साहित्य कुमाउनी पत्रिका "पहरू" में छपि गो । भाषा संविधान क आठूँ अनुसूची में आजि लै नि पुजि रइ । प्रयास चलि रौछ । सबूं हैं निवेदन छ कि भाषा कैं व्यवहार में धरो । हमार चार साहित्यकार छीं जनूकैं साहित्य अकादमी भाषा पुरस्कार लै प्रदान हैगो ।

     "पहरू" मासिक कुमाउनी पत्रिका लिजी डॉ हयात सिंह रावत (संपादक मोब 9412924897) अल्मोड़ा दगै संपर्क करी जै सकूं । कीमत ₹ 20/- मासिक । य पत्रिका डाक द्वारा घर ऐ सकीं । मी येक आजीवन सदस्य छ्यूँ । बाकि बात आपूं हयातदा दगै करि सकछा । उत्तराखंडी भाषाओं कि मासिक पत्रिका "कुमगढ़ " जो काठगोदाम बै प्रकाशित हिंछ वीक लै आपूं सदस्य बनि सकछा ।  मी येक लै आजीवन सदस्य छ्यूँ । संपादक दामोदर जोशी 'देवांशु' मो.9411309868, मूल्य ₹ 25/-। पिथौरागढ़ बै कुमाउनी मासिक पत्रिका " आदलि  कुशलि " छपैं रै । येक संपादक डॉ सरस्वती कोहली ( 9756553728 ) दगै संपर्क करी जै सकूं । मूल्य ₹ 30/- छ । अल्माड़ बै ' कुर्मांचल अखबार ' लै छपैं रौ, संपादक डॉ फुलोरिया (9411199805).

     कुमाउनी भाषा में कविता संग्रह, कहानि संग्रह, नाटक, उपन्यास, सामान्य ज्ञान, निबंध, अनुच्छेद, चिठ्ठी, खंड काव्य, गद्य, संस्मरण, आलेख सहित सबै विधाओं में साहित्य उपलब्ध छ । बस एक बात य लै कूंण चानू कि आपणि इज और आपणि भाषा ( दुदबोलि, मातृभाषा ) कैं कभैं लै निभुलण चैन ।

हमरि भाषा भौत भलि,
करि ल्यो ये दगै प्यार ।
बिन आपणि भाषा बलाइए,
नि ऊंनि दिल कि बात भ्यार।।

पूरन चन्द्र काण्डपाल
30.09.2021

Tuesday 28 September 2021

Janhit : जनहित

मीठी -मीठी -648 : जनहित के कई रूप


   खरी -खरी तो लगातार कह ही रहा हूं । संग में मीठी-मीठी भी गतिमान है  । 24 अप्रैल 2017 को जब देश की आंखें सुकमा में जान देने वाले 25 शहीदों के लिए नम हो रहीं थीं , उसी दिन एक पूर्व नियोजित कार्यक्रम के अनुसार 101 गरीब जोड़े विवाह बंधन में बंध गए । इन 101 जोड़ों में 93 हिन्दू, 6 मुस्लिम,1 सिक्ख तथा 1 ईसाई समुदाय से थे ।

     गरीब परिवारों के हित किये गए इस सर्वप्रिय विवाह समारोह का आयोजन सहारा शहर लखनऊ में सहारा इंडिया परिवार द्वारा किया गया । वर्ष 2004 से आरंभ इस सामूहिक विवाह समारोह का यह 12वां आयोजन था जिसमें तब तक 1212 जोड़े विवाह बंधन में बंध गये थे । इन सभी जोड़ों को गणमान्य लोगों ने आशीर्वाद दिया एवं गृहस्थी की बुनियादी वस्तुएं भेंट की गईं ।

    कई लोग समाज में कई तरह के कार्य करते हैं जिनमें जनहित के बजाय आडम्बर, पाखंड, अंधविश्वास, रूढ़िवाद, ढकोसला और दिखावा अधिक होता है ।  ऐसे कृत्यों से दूर रह कर जनहित - देशहित  के कार्यों में योगदान देना ही समाजोपयोगी कार्य कहा जायेगा । जल-स्रोतों का संरक्षण - स्वच्छता, पौध रोपण और साहित्य - संस्कृति प्रसार करते हुए धरा का श्रंगार करना भी सर्वोत्तम कर्म है । कोरोना के दौर में कई लोगों/संस्थाओं ने भी जनहित में अविस्मरणीय कार्य किया ।  सहारा इंडिया एवं इसी तरह की सोच रखने वालों तथा ऐसी गतिविधियों में व्यस्त मनिषियों को दिल से साधुवाद ।


पूरन चन्द्र काण्डपाल

29.09.2021

Monday 27 September 2021

Kaam krodh mad lobh moh : काम क्रोध मद लोभ मोह

खरी खरी- 934 : काम क्रोध मद लोभ मोह

     मैं कोई संत नहीं हूं, न साधु हूं और न बाबा । मैं कोई धर्माचार्य, आचार्य, पंडित, गुरु, सद्गुरु भी नहीं हूं । इन श्रेणियों में जो भी मनीषी आते हैं मैं उनके समकक्ष तो कुछ भी नहीं हूं । खाक दर खाक, सूचे न पाक । फिर भी काम, क्रोध, मद, लोभ और मोह इन पांचों के विषय में जो अल्पज्ञान मुझे है उसके अनुसार ये पांचों मानव के लिए ठीक नहीं हैं और यदि इन पर नियंत्रण नहीं रहा तो ये मानव को दानव बना देते हैं ।

     विषय बहुत विस्तृत है परंतु चर्चा सूक्ष्म में करूंगा । काम अर्थात वासना केवल भार्या-पति तक ही रहे तो काम बुरी चीज नहीं है । काम नहीं होता तो दुनिया भी आगे नहीं चलती । लेकिन काम जब परिधि लांघ कर बाहर जाता है तो वहां पहुँचा देता है जहां आजकल पाखंड सनित कुछ तथाकथित नामी-गिरामी बाबा पहुंच गए हैं । अतः काम को नियंत्रण में रखना होगा वर्ना यह काम तमाम कर देगा ।

     क्रोध तो मनुष्य का नाश कर देता है । क्रोध से बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है और  दिमाग सिकुड़ जाता है ।क्रोध एक क्षणिक पागलपन है जिसका अंत पाश्चाताप के साथ होता है जैसे कि 'रोड रेज' में व्यक्ति गोली चला देता है । मद अर्थात नशा भी मानव के लिए विनाशकारी है । कोई भी नशा भलेही वह शराब, धूम्रपान, तम्बाकू, चरस आदि कुछ भी हो, ये देर-सबेर मनुष्य का खात्मा कर देते हैं ।

     लोभ अर्थात लालच तो बुरी बला है जो मनुष्य को भ्रष्ट बना देता है । लालच से ही घूसखोरी पनपती है, भाई-भतीजावाद बढ़ता है और एक न एक दिन लालची व्यक्ति दंडित तो होता है । मोह-माया का चक्कर भलेही पांचवे क्रम में है परंतु यह भी कम खतरनाक नहीं । हम सब इसके चक्कर में फंस कर 'मैं - मेरा' रटते हुए 'तू-तेरा' भूल गए हैं । 

     इस तरह ये पांचों हमारे दुखों की जड़ हैं । इन्हें नियंत्रण में रखने से जीवन सुचारु रूप से चल सकता है । हमारी पांचों ज्ञानेन्द्रियाँ हमें इन पांचों की ओर घसीटती हैं । तुलसी जी कह गए हैं-

अलि पतंग गज मीन मृग

जरै एक ही आंच,

तुलसी वह कैसे बचे

जाको व्यापै पांच ।

पूरन चन्द्र काण्डपाल

28.09.2021

Bhagat singh : भगत सिंह

स्मृति - 647 : शहीद भगतसिंह स्मरण दिवस 

      शहीदे आजम भगतसिंह का जन्म 27 सितंबर 1907 को लायलपुर में हुआ था और 23 मार्च 1931 को शाम 7.23 पर भगत सिंह, सुखदेव तथा राजगुरु को फांसी दे दी गई थी । 23 मार्च यानि, देश के लिए लड़ते हुए अपने प्राणों को हंसते-हंसते न्यौछावर करने वाले तीन वीर सपूतों का शहीद दिवस है । यह दिवस न केवल देश के प्रति सम्मान और हिंदुस्तानी होने वा गौरव का अनुभव कराता है, बल्कि वीर सपूतों के बलिदान को भीगे मन से श्रृद्धांजलि देता है।

 

       उन अमर क्रांतिकारियों के बारे में आम मनुष्य की वैचारिक टिप्पणी का कोई अर्थ नहीं है। उनके उज्ज्वल चरित्रों को बस याद किया जा सकता है कि ऐसे मानव भी इस दुनिया में हुए हैं, जिनके आचरण किंवदंति हैं। भगतसिंह ने अपने अति संक्षिप्त जीवन में वैचारिक क्रांति की जो मशाल जलाई, उनके बाद अब किसी के लिए संभव न होगी। "आदमी को मारा जा सकता है उसके विचार को नहीं। बड़े साम्राज्यों का पतन हो जाता है लेकिन विचार हमेशा जीवित रहते हैं और बहरे हो चुके लोगों को सुनाने के लिए ऊंची आवाज जरूरी है।" बम फेंकने के बाद भगतसिंह द्वारा फेंके गए पर्चों में यह लिखा था।

      भगतसिंह चाहते थे कि इसमें कोई खून-खराबा न हो तथा अंग्रेजों तक उनकी आवाज पहुंचे। निर्धारित योजना के अनुसार भगतसिंह तथा बटुकेश्वर दत्त ने 8 अप्रैल 1929 को केंद्रीय असेम्बली में एक खाली स्थान पर बम फेंका था। इसके बाद उन्होंने स्वयं गिरफ्तारी देकर अपना संदेश दुनिया के सामने रखा। उनकी गिरफ्तारी के बाद उन पर एक ब्रिटिश पुलिस अधिकारी जेपी साण्डर्स की हत्या में भी शामिल होने के कारण देशद्रोह और हत्या का मुकदमा चला। यह मुकदमा भारतीय स्वतंत्रता के इतिहास में लाहौर षड्यंत्र के नाम से जाना जाता है। करीब 2 साल जेल प्रवास के दौरान भी भगतसिंह क्रांतिकारी गतिविधियों से भी जुड़े रहे और लेखन व अध्ययन भी जारी रखा। फांसी पर जाने से पहले तक भी वे लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे। 

    आज अमर शहीद भगत सिंह की 115वीं जयंती है । हम विनम्रता के साथ उन्हें हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं ।

पूरन चन्द्र कांडपाल

27.09.2021

Sunday 26 September 2021

Betiyan bhi karengi sntyeshti : बेटियां भी करेंगी अंत्येष्टि

खरी खरी - 932 : बेटियां भी करेंगी अंत्येष्टि

      कल 26 सितम्बर को हमने बेटी दिवस मनाया और बेटियों के सशक्तिकरण पर जोर दिया। बेटियां बहुत कुछ कर रही हैं और अभी बहुत कुछ करना बाकी है।  शिक्षा के दीप से अंधविश्वास का अंधेरा धीरे -धीरे मिट रहा है । देश के कई स्थानों में बेटियों को शव पर हाथ तक नहीं लगाने देते । मृत शरीर को भूत-प्रेत बता कर स्त्री वर्ग को डराया जाता है चाहे वह बेटी हो या बहू । उन्हें किसी परिजन के दाह संस्कार में शामिल होने से भी वंचित किया जाता है । कुछ जगहों पर उन्हें माता/पिता की अंत्येष्टि में श्मशान घाट तक आते हुए हमने देखा है । 

     कुछ महीने पहले छत्तीसगढ़ के जिला कोंडागाँव के संगवारपरा गांव में एक व्यक्ति की मृत्यु हुई जिसकी पांच बेटियां थी । सबसे बड़ी लड़की 11वीं और सबसे छोटी लड़की 6ठीं में पढ़ रही थी। इन बेटियों की मां की मृत्यु तीन वर्ष पहले हो गई थी । परिवार में कोई बेटा नहीं होने से गांव वाले बिरादरी में कुछ लड़कों से इनके पिता की अर्थी पर कंधा देने की मिन्नत करने लगे । पिता की मृत्यु पर बिलखती- रोती इन बेटियों ने कहा कि वे ही अपने पिता को कंधा देंगी और अर्थी को श्मशान तक ले गई तथा लोगों के सहयोग से पिता का दाह संस्कार किया । ऐसे कई उदाहरण हैैं। 

     उत्तराखंड के अपने परिवेश में भी कुछ ऐसा ही है । यहाँ जिन परिवारों में केवल बेटियां है, ऐसी परिस्थिति आने पर दूसरे लोगों से अंतिम संस्कार करने की गुहार लगाई जाती है । जब हम यह स्वीकार करते हैं कि पुत्र और पुत्री में कोई अंतर नहीं है तो फिर पुत्रियों को अर्थी को कंधा देने और दाह संस्कार/अंत्येष्टि करने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए । आज तो बेटियां किसी भी क्षेत्र में बेटों से कम नहीं हैं फिर माता -पिता की मृत्यु पर कंधा देने और दाह संस्कार या अंत्येष्टि करने के लिए दूसरों की तरफ क्यों देखा जाय ?  दिवंगत प्रधानमंत्री अटल जी का दाह संस्कार/अंत्येष्टि उनकी नातिन ने किया था। 

पूरन चन्द्र कांडपाल


27.09.2021


Saturday 25 September 2021

soch se shauch badala : संस्मरण 3 सोच से शौच बदला

मीठी मीठी 646 : ( संस्मरण 3) : सोच से शौंच बदला

     वर्ष 1975 -76 के दौरान मैं पूर्वोत्तर के एक सीमावर्ती राज्य में सेवारत था । तब वहां  के गावों की सेनिटेसन (स्वच्छता) हालात ठीक नहीं थे । लोग अपने घर के पास ही खुले में शौच करते थे । उस शौच से उनके सूवर पलते थे लेकिन गन्दगी बहुत थी । स्वच्छता अभियान के दौरान एक दुभाषिये के साथ मुझे वहां के एक गांव में भेजा गया । मैंने ग्रामवासियों को खुले में शौच से होने वाले सभी दुष्प्रभावों के बारे में समझाया और सेनिटरी इंजीनियरिंग के तरीके से स्थानीय हालात को देखकर शैलो ट्रैंच तथा डीप ट्रैंच लैट्रिन बनाने का डिमोंस्ट्रेसन दिया ।

     गांव वाले यह सब देख-सुन कर मुझ से नाराज हो गए और मुझे अपना दुश्मन समझने लगे। उनका कहना था, "ये आदमी हमारे सूवरों को मारना चाहता है ।" दुभाषिये ने मुझे सारी कहानी समझाई । इसके बाद मैंने उन्हें मक्खियों से होने वाले रोग, जल -जनित रोग तथा कृमिरोग के बारे में समझाया । वहां कई लोग इन रोगों से ग्रसित भी थे । गांव के मुखिया, दुभाषिये के सहयोग और मेरे प्रयास से उन लोगों ने खूब मंथन किया और खुले में शौच करना बंद कर दिया ।

      एक महीने के बाद स्वास्थ्य निदेशक के आदेश से मुझे उस क्षेत्र के मूल्यांकन के लिए पुनः भेजा गया । गांव की दशा बदल चुकी थी । गांव से मक्खियों की भनभनाहट दूर हो चुकी थी और मेरे प्रति उनकी नाराजी भी दूर हो चुकी थी । इस चर्चा से मैं कहना चाहता हूं कि यदि लोग मंथन करें तो वे अवांच्छित प्रथा- परम्परा और अंधविश्वास के सांकलों को तोड़ सकते हैं और स्वस्थ रह सकते हैं।

     यह भी बताना चाहूंगा कि पी एम साहब का कथन, "जो मुंह से तो वंदेमातरम कहते हैं और धरती में जहां- तहां कूड़ा डालते हैं, यह वंदेमातरम नहीं है" बिलकुल सत्य और सटीक है । हम सब देश के स्वच्छता अभियान को जहां -तहां कूड़ा डाल कर पलीता लगा रहे हैं । सभी मक्खी और मच्छर जनित रोग गंदगी के कारण तथा पानी जमा होने के कारण फैलते हैं।  स्मरण रहे कि स्वच्छता अभियान कोई नया नहीं है । अब तक के सभी 14 प्रधानमंत्रियों और 14 राष्ट्रपतियों ने इसकी चर्चा की है और स्वतंत्रता के बाद से चले आरहे इस स्वच्छता अभियान को गति दी है परन्तु यह तीन कदम आगे और दो कदम पीछे चला जाता है। इस सच्चाई को निगम बोधघाट दिल्ली पर यमुना नदी में या हरिद्वार से गंगासागर तक किसी भी घाट पर गंगा नदी में देखा जा सकता है या किसी भी रेल पटरी के दोनों ओर देखा जा सकता है। हम दिल्ली मैट्रो के अंदर स्वच्छता कानून मानते हैं और मैट्रो से उतरते ही अपने पुराने ढर्रे में आ जाते हैं। इस बीच दिल्ली के चांदनी चौक को स्वच्छ किया, कुछ नया रूप दिया परन्तु गुटका थूकने वालों ने पलीता लगाना शुरू कर दिया है। हम कब बदलेंगे ? हम कब सुधरेंगे ? पूछता है भारत ?

पूरन चन्द्र काण्डपाल
26.09.2021

Friday 24 September 2021

वह bhoot nahi tha : वह भूत नहीं था।

मीठी मीठी - 645  (संस्मरण - 2 ) : वह भूत नहीं था !

      वर्ष 1995 में मेरा पहला उपन्यास ‘जागर’ हिंदी अकादमी दिल्ली के सौजन्य से प्रकाशित हुआ जो बाद में ‘प्यारा उत्तराखंड’ अखबार में किस्तवार छपा भी | जिसने भी इसे पढ़ा उसे अच्छा लगा | एक दिन महानगर दिल्ली में बड़े सवेरे उपन्यास का एक पाठक रेशम मेरे पास आकर बोला, “कका आज दिन में तीन बजे हमारी घर भूत की जागर है, मेरी पत्नी पर भूत नाच रहा है | एक कमरे का मकान है, बैठने की जगह नहीं है इसलिए केवल आपको और एकाध सयानों को बुला रहा हूँ | डंगरिया आएगा,  दास नहीं है | वह बिना ढोल -हुड़के के ही हात –पात जोड़कर नाच जाता है | आप जरूर आना |” तीन वर्ष पूर्व रेशम की शादी हुयी थी | पांच लोगों के इस परिवार में माता-पिता, एक भाई और पति- पत्नी थे | परिवार शिशु के लिए भी तरस रहा था |

       मैं ठीक तीन बजे वहाँ पहुँच गया | वहाँ इन पाँचों के अलावा पड़ोस के दो जोड़ी दम्पति और डंगरिया मौजूद थे | धूप-दीप जली, डंगरिया दुलैंच में बैठा और रेशम के पिता जोड़े हुए हाथों को माथे पर टिका कर गिड़गिड़ाने लगे, “हे ईश्वर- नरैण, ये मेरे घर में कैसी हलचल हो गयी है ? कौन है ये जो मेरी बहू पर लगा है | गलती हुई है तो मुझे डंड दे भगवन, पर इसका पिंड छोड़ |” डंगरिया कापने लगा और बहू भी हिचकोले- हिनौले खेलने लगी | बहू की तरफ देख रेशम के पिता जोर से बोले, “हम सात हाथ लाचार हैं, तू जो भी है इसे छोड़, मुझे पकड़, मुझे खा |” वे डंगरिये की तरफ देख बोले, “तू देव है, दिखा अपनी करामात |” इस बीच बहू बैठे- बैठे सिर के बाल हिलाती हुई डंगरिये ओर बढ़ी | डंगरिये ने उसे बभूत लगाना चाहा जिस पर वह बेकाबू घोड़ी की तरह बिदक पड़ी मानो वह उस पर झपट पड़ेगी | डंगरिया बचाव मुद्रा में आ गया और डरी हुई आँखों से मुझे देखने लगा |

      सभी इस दृश्य से दंग थे | रेशम मेरी तरफ देख कर बोला, “यह तो हद हो गयी | इसका कोई गुरु- गोविंद ही नहीं रहा | ऐसा डंगरिया नहीं मिला जो इस पर सवा सेर पड़ता | परिवार की परेशानी देख मेरे मन में एक विचार आया और मैं उठकर बहार जाने वाले दरवाजे के पास बैठ गया | मैंने गंभीर मुद्रा बनाते हुए जोर से कहा, “बिना गुरु की अंधेरी रात ! बोल तू है कौन ? किस गाड़- गधेरे से आया है ? खोल अपनी जुबान | आदि-आदि..” मेरी भाव- भंगिमा और बोल सुन कर सभी समझने लगे कि मैं उस डंगरिये से बड़ा डंगरिया हूँ | मेरी ओर देखकर रेशम की पिता बोले, “परमेसरा रास्ता बता दे, मेरा इष्ट –बदरनाथ बन जा |” मैंने उन्हें संकेत से चुप कराया | मैं रेशम की पत्नी की तरफ देख कर बोला, “तू बोलता क्यों नहीं ? नहीं बोलेगा तो मैं बुलवा के छोडूंगा | मसाण- भूत का इलाज है मेरे पास |” वह नहीं बोली | मैंने रेशम के ओर देखकर जोर से कहा, “धूनी हाजिर कर दे सौंकार |” रेशम- “परमेसरा यहाँ धूनी कहाँ से लाऊँ?” मैं- “धूनी नहीं है तो स्टोव हाजिर कर दे |” रेशम तुरंत रसोई से स्टोव, पिन और माचिस ले आया | मेरे संकेत पर उसने स्टोव जलाया | मैं- “चिमटा हाजिर कर दे सौंकार |” वह भाग कर चिमटा ले आया | सभी मुझे देव अवतार में समझ रहे थे जबकि ऐसा नहीं था | मैं स्वयं डरा हुआ था | मैंने ठान रखी थी, यदि रेशम की पत्नी ने मुझ पर आक्रमण कर दिया तो दरवाजे से बाहर खिसक लूँगा |

      मैंने स्टोव की लपटों में चिमटा लाल करते हुए रेशम की पत्नी की तरफ देख कर कहा, “जो भी भूत, प्रेत, पिसाच, मसाण,  छल, झपट तू इस पर लगा है, अगर तेरे में हिम्मत है तो पकड़ इस लाल चिमटे को, वर्ना मैं स्वयं इस चिमटे को तेरे शरीर पर टेक दूंगा |” मैं उसे डराने के लिए बोल रहा था | लाल चिमटे को देख रेशम की पत्नी का हिलना बंद हो गया और सिर पर पल्लू रखते हुए वह धीरे से उठ कर पीछे बैठ गयी | अब मैं निडर हो गया और बुलंदी से बोला, “जो भी तू इस पर लगा था आज तूने इस धूनी- चिमटे के सामने इसका पिंड छोड़ दिया है | आज से इसका रूमना- झूमना, रोना-चिल्लाना, चित्त-परेशानी, शारीरिक-मानसिक क्लेश, रोग- व्यथा सब दूर होनी चाहिए |” इतना कहते हुए मैंने स्टोव की हवा निकाल दी ।

      जागर समाप्त हो चुकी थी | आये हुए डंगरिये ने मुझे अपने से बड़ा डंगरिया समझ कर हाथ जोड़े | रेशम पत्नी को आगे लाया और मुझ से उसे बभूत लगवाया | बभूत लगाते हुए मैंने उससे कहा, “आज से तुम निरोग हो, निश्चिंत हो और निडर हो | खुश रहो, अपने को व्यस्त रखो, अध्ययन करो, खाली मत बैठो | भूत एक बहम है, कल्पना है | खाली बैठने से अवांच्छित, उल- जलूल विचार मन में पनपते हैं | इसीलिये खाली दिमाग को भूत का घर भी कहते हैं | जीवन का एक मन्त्र है कर्म करना, व्यस्त रहना और ईश्वर में विश्वास रखना बस |” इतना कह कर मैं उठा और चला आया |

      यह कोई सोची समझी योजना नहीं थी | सबकुछ अचानक हुआ | कई लोग मुझे भूत साधक समझने लगे | जब भूत है ही नहीं तो साधूंगा क्या ? यह एक भ्रम -रोग है जो यौनवर्जना, वहम,  आक्रामक इच्छाओं की अपूर्ति से कुंठाग्रस्त बना देता है और दमन करने पर भावावेश में यह रूप प्रकट होता है | मनुष्य से बड़ा कोई भूत है ही नहीं जो सर्वत्र पहुँच चुका है | रेशम की कहानी हमें यही बताती है की उसकी पत्नी पर कोई भूत नहीं था | अंधविश्वास की सुनी- सुनाई बातों के घेरे में वह कुंठित हो गयी थी | अगले ही वर्ष उनके घर शिशु का आगमन हो चुका था | हमें फल की इच्छा न रखते हुए कर्म रूपी पूजा में व्यस्त रहना चाहिए | अंधविश्वास का अँधेरा कर्मयोग- प्रकाश के आगे कभी नहीं टिक सका है |

पूरन चन्द्र कांडपाल
25.09.2021

Thursday 23 September 2021

Sansmaran 1 : संस्मरण 1

मीठी मीठी - 644 (संस्मरण - 1) : मेरी यादें 


     वर्ष 1964 में 10वीं पास करते ही मैं काम की खोज में निकल गया था । नौकरी करते हुए स्नातकोत्तर शिक्षा (राजनीति शास्त्र में) तथा  तकनीकी स्वास्थ्य शिक्षा में अध्ययन किया । 40 वर्ष की नौकरी में मैंने कई उतार - चढ़ाव देखे । भारतीय सेना में रह कर 1971 के 14 दिन के भारत - पाक युद्ध में देश की सीमा पर भी सेवा दी । जीवन में  बड़े खट्टे - मीठे - कड़ुवे अनुभव भी हुए । अपने अनुभवों को याद करता हूं तो गुजरा जमाना याद आ जाता है । कभी कभी सोचते सोचते अपने आप मुस्कराने लगता हूं । पत्नी देवी कहती है अपने आप पागलों की तरह क्यों हंस रहे हो ? यादें मनुष्य की बहुत बड़ी निधि हैं जिनके सहारे वह दुख - सुख में जी लेता है, समस्याओं से जूझ सकता है । मैं सोसल मीडिया में विगत 8- 9 वर्ष से कुछ शीर्षकों ( बिरखांत, खरी खरी, मीठी मीठी, स्मृति,  दिल्ली बै चिठ्ठी ऐ रै ( कुर्मांचल अखबार अल्मोड़ा) और ट्वीट ) के अन्तर्गत कुमाउनी और हिंदी में कलमघसीटी कर रहा हूं जिनकी कुल संख्या 3360 ( 'दिल्ली चिठ्ठी ' इसमें नहीं है जिनकी संख्या 300 से अधिक है ) हो गई है जिन्हें मेरे मित्र, आलोचक, पाठक आदि सभी पढ़ते हैं और अच्छी प्रतिक्रिया देते हैं तथा मेरा मार्ग दर्शन भी करते हैं । मैं इन सबका आभारी हूं । 

      मैं बदलाव का पक्षधर हूं । कट्टरवाद को अनुचित समझता हूं । रूढ़िवाद और अंधश्रद्धा से भरी परंपराओं में शिक्षा के सूर्योदय के साथ बदलाव होना चाहिए । शिक्षा के प्रकाश से ही अंधेरा मिटेगा । अंधेरा मिटाने के लिए दीप प्रज्ज्वलित करना ही होगा । इसी सोच से पढ़ना - लिखना मेरा शौक बन गया । मैं आजीवन छात्र बन कर ही रहना चाहता हूं । विगत 40 वर्षों में 31 किताबों ( 17 हिंदी और 14 कुमाउनी )  की रचना भी कब हो गई पता नहीं चला । अब एक नए शीर्षक ' संस्मरण ' के अन्तर्गत कुछ संजोई हुई यादों को अपने पाठकों से साझा करने का मन है । कितना सफल होता हूं यह तो समय बताएगा । शीघ्र ही नया शीर्षक ' संस्मरण ' आरम्भ होगा तथा साथ ही पुराने शीर्षक भी गतिमान रहेंगे । मुझे पूर्ण विश्वास है कि आपका स्नेह बरसते रहेगा जिससे मेरी कलमघसीटी चलते रहेगी । शुभकामनाओं सहित । 

पूरन चन्द्र कांडपाल

24.09.2021