Friday 26 June 2020

Kaise kahoon dard naheen hai ? : कैसे कहूं दर्द नहीं हैं ?

बिरखांत-323 : कैसे कहूं दर्द नहीं है ?

       (आज से 4 साल पहले पहाड़ में जो देखा उससे दिल में दर्द और आंखों में नमी छा गई जिसे 2016  के मई महीने में लेखनी ने प्रकट कर दिया ।  क्या इन 4 वर्षों में कुछ बदलाव आया, यह तो आप ही जानें ?)

       मई 2016 का एक दिन । पहले की ही तरह इस बार भी न पहाड़ में ठंडी हवा मिली और न ठंडा पानी | पहाड़ों के दर्शन भी नहीं हुए | प्रत्येक वर्ष की तरह, इस बार भी पहाड़ के जंगलों में भीषण आग से भारी क्षति हुयी थी | धुएं की घनी परत काठगोदाम से ही नजर आने लगी थी | पहाड़ों की ऊँची चोटियों से भी चारों और धुँआ ही दिखाई दे रहा था | लोगों ने बताया, ‘इस बार भयंकर आग लगी या लगाई गयी | धुंए में धूल के कणों के मिल जाने से घना कोहरा बन गया है | यह धुंध तभी हटेगी जब पहाड़ों के बीच तेज हवा के साथ लगातार बारिश होगी |’ जंगलों को निकट से देखा तो घास और छोटे-छोटे पौधे तथा जड़ी-बूटियाँ जल चुकी थी | राख और कालख के ऊपर पीरुल (चीड़ की सूखी पत्तियां) के पर्त जम चुकी थी | चीड़ के अधजले पेड़ बता रहे थे कि यह एक साधारण आग नहीं बल्कि दावानल था | ‘पहाड़ में हर साल आग क्यों लगती है या क्यों लगाई जाती है और आग बुझाने में देरी क्यों की जाती है?’ ये प्रश्न अभी तक अनुत्तरित हैं |

      पेयजल की कमी से लगभग सभी गाँव त्रस्त थे | जिन जलस्त्रोतों को नलूँ द्वारा गांवों से जोड़ा गया था वे सूख चुके थे | चीड़ के जंगलों को इसका जिम्मेदार बताया जा रहा है | लोग मीलों दूर से पीने का पानी लाने में व्यस्त थे | सुबह से सांय तक पानी की ही बात | पानी के अभाव में मौसमी साग- सब्जी की पौध रोपाई की प्रतीक्षा कर रही थी | विद्युत पूर्ती में भी एकरूपता नहीं थी | यह बात अलग है कि उत्तराखंड से अन्य राज्यों में विद्युत् आपूर्ति की जाती है | रोजगार के अभाव में पहाड़ से पलायन थमने का नाम नहीं ले रहा | शिक्षित- अशिक्षित सभी का रोजगार की तलास में शहरों की और जाना जारी है | किसी के बीमार होने पर गावों में चार आदमी डोली पर लगने के लिए उपलब्ध नहीं हैं, जो उसे सड़क तक पहुंचा सकें |

     पहाड़ में एक बदलाव अवश्य आया है, अब शादियां दिन में ही हो रही हैं तथा बारात बसों के बजाय जीपों में जा रही है | सुबह बारात जाती है तथा सायं तक दुल्हन लेकर वापस आ जाती है यदि शराबियों का सहयोग रहा तो | शराबखोरों की बढ़ती हुयी संख्या के कारण शादियाँ दिन में हो रही हैं | सूक्ष्म शादी की रश्म, फेरे और बिदाई सभी दिन में ही पूरी हो जाती हैं | रात की शादी में शराब बरात को आधी रात से पहले दुल्हन के द्वार तक नहीं पहुंचने देती थी  | दिन की शादी में भी शराब खूब बह रही है परन्तु बड़े फसाद होने का भय कम रहता है | बरेतिये ही नहीं घरतिये भी शराब में डूबे रहते हैं |

      पहले भी शादी के हफ्ता- दस दिन के बाद दूल्हा दुल्हन को घर छोड़ कर चला जाता था और आज भी यह सिलसिला जारी है | शादी की उम्र में तनिक परिवर्तन आया है | अब बाल- विवाह नहीं हो रहे हैं | पहले विवाह होते ही दूल्हे के पलायन करने पर दुल्हन को रोते- बिलखते नहीं देखा जाता था क्योंकि वह बचपन के भोलेपन में खोयी रहती थी परन्तु अब शादी के उपरान्त ही पति के विछोह का दर्द सिसकियों से सनी न थमने वाली अश्रुधार स्वयं प्रकट कर देती है | सिसकियाँ पलायन को नहीं रोक सकती क्योंकि रोजगार का प्रश्न मुंह बाए खड़ा रहता है | विवाहोपरांत दुल्हन को घर छोड़ना वहाँ के नियति बन गयी है जो पलायन थमने से ही थम सकती है |

      परंपरा, परिस्थिति और रोजगार के चूल में पिसता यह प्रश्न मन को बोझिल कर देता है | शादी नहीं करना इसका उत्तर नहीं है | नवदुल्हनों की इस व्यथा पर बड़ों का विशेष ध्यान नहीं जाता है | उनका कथन है, ‘यह कोई नहीं बात नहीं है | हम भी तो ऐसे ही रहे | रोजगार की तलाश में पहाड़ के पुरुष बाहर जाते रहे हैं | नहीं जायेंगे तो खायेंगे क्या ?’ घर से बाहर गए पुरुष साल- छै महीने में घर आते हैं और कमाई का एक बड़ा भाग आने- जाने में खर्च हो जाता है | घर आकर वह दीन- क्षीण पत्नी एवं छाड़- छिटके, दुबले, बीमार एवं समुचित शिक्षा से वंचित बच्चों को देखकर स्वयं को कसूरवार समझते हैं | उधर वृद्ध होते माँ –बाप के मूक चेहरे भी कई प्रश्न  पूछते हैं | परिस्थितियों के इस भंवर में इन प्रश्नों के उत्तर नहीं दिखाई देते |

      नवविवाहित जोड़े का शादी के दिन से ही विरह में रहना बहुत अखरता है | शादी के बाद दुल्हन का दूल्हे के साथ न रह पाना, यह दूल्हा- दुल्हन दोनों के लिए नाइंसाफी है | काश ! पहाड़ में रोजगार उपलब्ध होता तो विरह- वेदना के इन दर्द भरे दिनों से विवाहित युगलों को नहीं गुजरना पड़ता | इस दर्द को वर्तमान मोबाइल फौन हल्का करने के बजाय और अधिक बढ़ा देता है | इस दर्द की छटपटाहट किसी दवा से भी कम नहीं हो सकती | साथ रहना ही इसका एकमात्र निदान है | यह तभी संभव है जब पहाड़ में रोजगार हो और शादी के बाद दूल्हा अपने घर से अपने कार्य पर जा सकता हो अन्यथा सिसकती दुल्हन के आंसुओं की गाड़ थमने वाली नहीं....।

पूरन चन्द्र काण्डपाल,
27.06.2020

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