Sunday 10 May 2020

Kafaltaa kand barasi : कफल्टा कांड बरसी

बिरखांत - 319 : कफल्टा का शर्मनाक हत्याकांड

   (आज लौकडाउन का 48/54वां  दिन है । घर में रहिए, बाहर मत निकलिए । इस दौर में विश्व में कोरोना संक्रमित/मृतक संख्या 41.46+ लाख/2.81+ लाख और देश में 65 +हजार /2.1+ हजार हो गई है । देेश में 19 + हजार रोगी ठीक भी हो गए हैं । कर्मवीरों का मनोबल बढ़ाइए । भागेगा कोरोना, जीतेगा भारत। आज कफल्टा हत्याकांड की बरसी पर बिरखांत प्रस्तुत है । )

        9 मई 1980 उत्तराखण्ड के इतिहास की सबसे काली तारीखों में से एक है । इस दिन कुमाऊं के कफल्टा नाम के एक छोटे से गाँव में थोथे सवर्ण जातीय दंभ ने पड़ोस के बिरलगाँव के चौदह दलितों की नृशंस हत्या कर डाली थी. इसके बाद देश भर का मीडिया वहां इकठ्ठा हुआ था । दिल्ली से तत्कालीन गृहमंत्री ज्ञानी जैल सिंह को भी मौके पर पहुंचना पड़ा था ।

      देवभूमि कहलाने वाले उत्तराखण्ड की सतह ऊपर से कितनी ही मानवीय और मुलायम दिखाई दे, सच तो यह है कि यहाँ के ग्रामीण परिवेश में सवर्णों और शिल्पकार कहे जाने वाले दलितों के सम्बन्ध सदी-दर-सदी उत्तरोत्तर खराब होते चले गए हैं ।  इस बात की तस्दीक एटकिन्सन का हिमालयन गजेटियर भी करता है । इन तनावपूर्ण लेकिन अपरिहार्य रिश्तों पर कफल्टा में पुती कालिख अभी तक नहीं धुल सकी है ।

      सारा मामला एक बारात को लेकर शुरू हुआ था ।  लोहार जाति से वास्ता रखने वाले श्याम प्रसाद की बारात जब कफल्टा गाँव से होकर गुजर रही थी तो गाँव की कुछ महिलाओं ने दूल्हे से कहा कि वह भगवान बदरीनाथ के प्रति सम्मान दिखाने के उद्देश्य से पालकी से उतर जाए । चूंकि मंदिर गाँव के दूसरे सिरे पर था, दलितों ने ऐसा करने से मना कर दिया और कहा कि दूल्हा मंदिर के सामने पालकी से उतर जाएगा । इससे बौखलाई महिलाओं ने गाँव के पुरुषों को आवाज दी जिसके बाद गाँव में उन दिनों छुट्टी पर आये खीमानन्द नाम के एक फ़ौजी ने जबरन पालकी को उलटा दिया । ब्राह्मण खीमानन्द की इस हरकत से नाराज हुए दलितों ने उस पर धावा बोल दिया जिसमें उसकी मृत्यु हो गई ।

        अब बदला लेने की बारी ठाकुरों और ब्राह्मणों की थी । अपनी जान बचाने को सभी बारातियों ने कफल्टा में रहने वाले इकलौते दलित नरी राम के घर पनाह ली और कुंडी भीतर से बंद कर दी । ठाकुरों ने घर को घेर लिया और उसकी छत तोड़ डाली ।  छत के टूटे हुए हिस्से से उन्होंने चीड़ का सूखा पिरूल, लकड़ी और मिट्टी का तेल भीतर डाला और घर को आग लगा दी ।

      छः लोग भस्म हो गए और जो दलित खिड़कियों के रास्ते अपनी जान बचाने को बाहर निकले उन्हें खेतों में दौड़ाया गया और लाठी-पत्थरों से उनकी हत्या कर दी गयी ।  इस तरह कुल मिलाकर 14 दलित (वहां शिल्पकार कहते हैं ) मार डाले गए ।  दूल्हा श्याम प्रसाद और कुछेक बाराती किसी तरह बच भागने में सफल हुए ।

     इन भाग्यशालियों में 16 साल का जगत प्रकाश भी था ।  घटना के कई वर्षों के बाद एक पत्रिका को साक्षात्कार देते हुए उसने कहा था – “कुछ देर तक भागने के बाद मेरी सांस उखड़ गई और ठाकुरों ने मुझे पकड़ लिया । वे मुझे वापस गाँव लेकर आये और मुझे उस जलते हुए घर में फेंकने ही वाले थे जब हरक सिंह नाम के एक दुकानदार ने पगलाई भीड़ को ऐसा करने से रोका और मुझे गाय-भैंसों वाले एक गोठ में बंद कर दिया । तीन दिन बाद मुझे पुलिस ने बाहर निकाला तो मैंने लाशों की कतार लगी हुई देखी ।”

      इस घटना ने सारे देश को थर्रा दिया था । बाद में मुकदमे चले और निचली अदालत के साथ साथ हाईकोर्ट ने भी सबूतों के अभाव में सभी आरोपियों को बरी कर दिया लेकिन अंततः 1997 में न्याय हुआ जब सुप्रीम कोर्ट ने सोलह आरोपियों को उम्र कैद की सजा सुनाई । इन में से तीन की तब तक मौत हो चुकी थी ।

     9 मई उत्तराखण्ड के लिए सामूहिक शर्म का दिन होना चाहिए । हाल ही में  जब जात-पात की आंच में सुलगते हमारे इसी उत्तराखण्ड के एक दूसरे गाँव (टिहरी जिला) में एक निरीह दलित युवक की हत्या सिर्फ इसलिए हुई है कि वह एक बारात में सवर्णों की उपस्थिति में कुर्सी पर बैठ कर खाना खा रहा था तो हमने कफल्टा को याद करना चाहिए और अपने आप से सवाल पूछना चाहिए कि हम इस धरती के वाशिंदे कहलाने लायक हैं भी या नहीं ? देवभूमि तो बहुत बाद की चीज है ।

(काफल ट्री डेस्क से साभार । उत्तराखंड का यह शर्मनाक दलित हत्याकाण्ड भुलाए नहीं भूलता । देवभूमि में यह जघन्य अपराध क्यों हुआ ? आज भी क्यों होता है ? इसका जिम्मेदार कौन है ? यह नफरत कब तक ? )

पूरन चन्द्र काण्डपाल
11.05.2020

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