Thursday 6 June 2019

Prathaa parampara kaa manthan : प्रथा परम्परा का मंथन

बिरखांत – 267 : प्रथा- परम्पराओं का मंथन और क्रियान्वयन 

      अक्सर उत्तराखंड के सरोकारों से सराबोर होने की बात तो हम सब करते ही हैं परन्तु अपने हिस्से का क्रियान्वयन हम नहीं करते | हम ‘बन बचाओ, नदी बचाओ, पेड़ लगाओ, प्रकृति से छेड़छाड़ मत करो और शराब-धूम्रपान-गुट्का से उत्तराखंड को बचाओ’ भी कहते हैं | हम गंगा-यमुना की स्वच्छता बहश में भागीदारी भी करते रहे हैं | परन्तु न हमें पेड़ लगाने की चिंता हैं, न पर्यावरण बचाने की और न नदी बचाने की |  उदहारण के लिए दिल्ली में यमुना किनारे स्थित निगम बोध श्मशान घाट की चर्चा करते हैं |

      यहाँ पर उत्तराखंड एवं कुछ अन्य जगहों के लोग शवदाह यमुना नदी के किनारे करते हैं और चार-पांच घंटे में शव दाह कर सम्पूर्ण राख-कोयला यमुना में बहा देते हैं | काला गंदा नाला बन चुकी यमुना की दुर्दशा निगमबोध घाट पर देखी नहीं जा सकती है | यहाँ पर शवदाह की व्यवस्था सी एन जी फर्नेश से भी है | छै फर्नेश (भट्टी) चालू  हालत में हैं | एक शवदाह में एक घंटा बीस मिनट का समय लगता है | शवदाह में समय तो बचता ही है एक पेड़, पर्यावरण, हवा और यमुना भी बचती है और शवदाह में कर्मकांड की वे सभी क्रियाएं भी की जाती हैं जो लकड़ी के दाह में की जाती हैं | शवदाह में सी एन जी खर्च मात्र एक हजार रुपये है जबकि लकड़ियों का खर्च ढाई से पांच हजार रुपये तक हो जाता है | अक्सर फट्टे, लकडियां, चीनी दोबारा मंगाई जाती हैं क्योंकि फट्टे और चीनी में मुर्दाघाट में भी कमीशन का यमराज बैठा है |

      यह सब जानते हुए भी लोगों का रुझान सी एन जी दाह के प्रति नहीं दिखाई देता | अन्धविश्वास की जंजीरें उन्हें बांधे हुए हैं | तर्क दिया जाता है कि ‘हमारी परम्परा लकड़ी में ही जलाने की है और लकड़ी में जलाने से ही मृत व्यक्ति सीधा स्वर्ग जाएगा |’ यमुना के मायके वाले उत्तराखंडियों को तो यमुना की अधिक चिंता होनी चाहिए |

     यदि मानसिकता नहीं बदली तो प्रधानमंत्री के बनारस को क्योटो बनाने के सपने का क्या होगा ? वहां भी पण्डे घाटों की स्वच्छता में कुछ न कुछ रोड़ा अटका रहे हैं | पेड़, पर्यावरण, प्रदूषण एवं नदियों की चिंता के साथ आज रुढ़िवादी एवं अंधविश्वासी परम्पराओं-प्रथाओं को बदलने की आवश्यकता भी है | क्या हम सोसल मीडिया के भागीदार इन मुद्दों पर जनजागृति करेंगे ? वक्त आने पर इसे अपनायेंगे या अपनाने को कहेंगे ? या सिर्फ दूसरों से ही इस कदम की अपेक्षा करेंगे ? हो सके तो इस मुद्दे पर चर्चा करें और वक्त आने पर क्रियान्वयन में मदद करें |

          कौन क्या कर रहा है, बात यह नहीं है | मुख्य बात है कि हम क्या कर रहे हैं ? कथनी –करनी में अंतर हम रोज देखते हैं | शराब-धूम्रपान-गुट्के के विरोध में मंच से कविता पाठ करने वाले तथा लम्बे-लम्बे भाषण देने वालों को मैंने उसी समारोह के समापन के तुरंत बाद शराब गटकते, सिगरेट पीते और गुट्का फांकते देखा है | पर उपदेश.. के प्रवचनों की हमारे इर्द-गिर्द बाड़ आई है | हम स्वयं से इन सवालों को पूछें और अपने हिस्से का क्रियान्वयन से कतराएं नहीं |मंथन भी करें कि हम क्रियान्वयन में कितने खरे हैं ।

पूरन चन्द्र कांडपाल
07.06.2019

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