खरी खरी - 850 : रोए गंगा की जलधार
हो व्यथित गंगा रोवे
बिगड़ते अपने हाल पर,
पुकारे जन जन को
तू आ मेरा श्रृंगार कर,
इंग्लैंड की टेम्स हुई स्वच्छ
हटा जो था कूड़ा धंसा,
काश ! मेरे देशवासी
तरसे देख मेरी दशा ।
कभी स्वच्छ हुई नहीं
मुझ में गंदगी बढ़ती गई,
विशाल पर्त कूड़े की
मेरे तट पर चढ़ती गई,
नित बढ़ा प्रदूषण मेरा
रंग धुंधला हो गया,
जल सड़ा तट-तल सड़ा
अंतस्थ मेरा सड़ गया ।
कैसा ये कोरोना काल
जन जन हुआ बेहाल
क्रूर मानवभक्षी रोग
ग्रास हो गए कई लोग
काठ नहीं चिता के लिए
जगह नहीं कब्र के लिए
तैरने लगे शव मेरे तट
कैसा ये काल करवट ?
ये शव किसने बहाए
कैसी रही ये मजबूरी ?
कहां होगा शासन तंत्र
सुप्त व्यवस्था पूरी,
जिनके ये परिजन
वे रोए होंगे पल पल
उनकी अश्रुधार से
जल रहा है मेरा जल ।
कर गए वो गलती
करवा दिया कुंभ चुनाव
साधु ही मना कर देते
बिन कुंभ राम को रिझा लेते,
मानव निर्मित परम्परा थी
इस बार टल सकती थी
धार्मिक त्यौहार मेला मिलन
इनसे बड़ी तो जिंदगी थी ।
उन्नाव बलिया छपरा गाजीपुर
बक्सर समेत गांव शहर
सैकड़ों शव समा रहे मेरी गोद
कैमरा नहीं है सब जगह
रोए धरती रोए अम्बर
यत्र तत्र रोए नर नार
तैरते शवों के अंबार देख
रोए आज मेरी जलधार ।
( महामारी के इस दौर में मेरा उद्देश्य निराशा के अंधरे में छिलुक जगा कर तंत्र को सचेत करना है। निराशा का अंधेरा अवश्य मिटेगा, बस हम अनुशासन में रहें और जिंदगी में जीत की उम्मीद में रहें। )
पूरन चन्द्र काण्डपाल
14.05.2021
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