Friday 23 February 2018

Wada : क्या हुआ तेरा वादा

बिरखांत - 200 : क्या हुआ..आ.. तेरा वादा..आ..आ.. ?

( 21 फरवरी मातृभाषा दिवस पर विशेष )

           आज के युग में वायदा करने में लोग देर नहीं लगाते परन्तु निभाने में देर की बात छोड़ो, वायदा ही भूल जाते हैं | एक हजार से अधिक वर्ष पुरानी कुमाउनी-गढ़वाली भाषा जो कभी कत्यूरी और चंद राजाओं की राजकाज की भाषा थी, गोरखा आक्रमण में मार डाली गई | रचनाकार आगे आए और भाषा पुन: पनप गई |

     दो दशक पहले कुछ मित्रों ने कहा, ‘आप हिन्दी में लिख रहे हैं अच्छी बात है परन्तु कुमाउनी मरने लगी है, इसे भी ज़िंदा रखो |’ मैंने प्रयास किया और कुमाउनी की कुछ विधाओं पर दस पुस्तकें लिख दी | दो पुस्तकें ‘उज्याव’ (उत्तराखंड सामान्य ज्ञान, कुमाउनी में ) और ‘मुक्स्यार’ ( कुमाउनी कविताएं ) निदेशक माध्यमिक शिक्षा उत्तराखंड सरकार ने कुमाऊं के पांच जिल्लों- अल्मोड़ा, बागेश्वर, नैनीताल, पिथौरागढ़ और चम्पावत के सभी पुस्तकालयों हेतु खरीदने के लिए इन सभी जिल्लों के मुख्य शिक्षा अधिकारियों को पत्रांक २२४८१-८६/पुस्तकालय/२०१२-१३ दिनांक २३ जून २०१२ के माध्यम से आदेश दिया |

      तब से पांच वर्ष बीत चुके हैं, कई स्मरण पत्र देने पर भी आज तक एक भी पुस्तक नहीं खरीदी गई | नीचे से ऊपर तक कुर्सी में बैठे हुए जिस साहब से भी कहा उसने वायदा किया परन्तु परिणाम शून्य रहा | यही नहीं दिल्ली और उत्तराखंड की कई नामचीन संस्थाओं एवं कई व्यक्तियों ने भी मेरे अनुरोध पर विद्यार्थियों के लिए लिखी गई मेरी पांच पुस्तकों (उज्याव, बुनैद, इन्द्रैणी, लगुल, महामनखी –प्रत्येक का मूल्य मात्र 100/- ) को समाज में पहुंचाने का कई बार बचन दिया, वायदा किया परन्तु इक्का-दुक्का व्यक्तियों ने ही वायदा निभाया |

     इन पुस्तकों में मैंने सूक्ष्म शब्दों में गुमानी पंत, गिरदा, शेरदा, कन्हैयालाल डंड्रीयाल, पिताम्बरदत बड़थ्वाल, शैलेश मटियानी, सुमित्रानंदन पंत, वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली, ज्योतिराम काण्डपाल, बिशनी देवी शाह, टिंचरी माई, लवराज सिंह धर्मशक्तु, सुन्दरलाल बहुगुणा, बछेंद्री पाल, गौरा देवी, विद्यासागर नौटियाल, श्रीदेव सुमन, चंद्रकुंवर बर्त्वाल सहित गंगा, हिमालय, उत्तराखंड राज्य, पर्यटन, स्वतंत्रता सेनानी, किसान, सैनिक, विद्यार्थी, अध्यापक एवं राष्ट्र के कई महापुरुषों, १३ राष्ट्रपतियों, १४ प्रधानमंत्रियों तथा कई अन्य विषयों को छूने का प्रयास किया है |

     विचार गोष्ठियों एवं सम्मेलनों में अक्सर इस साहित्य को गांव-देहात तक पहुंचाने के खूब वायदे सुनता हूं परन्तु क्रियान्वयन शून्य | काश ! हम सब एक-एक पुस्तक भी अपने घर /संस्था में रखते, अपने गांव के अध्यापक- सभापति- सरपंच तक पहुंचाते तो बच्चे अवश्य जानते कि ये ‘गिरदा’-‘ गढ़वाली’ आदि उक्त व्यक्ति कौन हैं और हमारी लिखित भाषा भी उन तक पहुंचती | हम आयोजन में आए, भाषण दिया, भाषण सुना और वापस | बस | निराश नहीं हूं | वसंत जरूर आएगा |

“अभी निराशा का घुप्प
अंधेरा नहीं हुआ है,
आशा के रोशन चिराग
भी हो रहे हैं;
खुदकुशी करने का मन
जब करता है कभी,
पहरे जीने की तम्मन्ना
के भी लग रहे हैं |”

पूरन चन्द्र काण्डपाल
22.02 .2018

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