Saturday 3 July 2021

Samajik vishamata : सामाजिक विषमता

खरी खरी - 881: सामाजिक विषमता कब तक ? 


(वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता गुसाई राम आर्य का छलकता दर्द )

    आज की खरी खरी उस सामाजिक विषमता पर आधारित है जो उत्तराखंड सहित पूरे देश में आज भी अपनी जड़ जमाए हुए है। वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता श्री गुसाई राम आर्य जी कोविड काल में करीब 2 महीने आपने गांव ( गवालबीना, स्याल्दे और चौखुटिया ब्लॉक जिला अल्मोड़ा ) में रहे। इस दौरान उन्होंने जो देखा और देखकर जो महसूस किया उस दर्द का यहां शब्द सह उल्लेख कर रहा हूं । हमें उनकी इस वेदना पर मंथन करने की आवश्यकता है। प्रस्तुत है आर्य जी की वेदना -  

"सोचनीय, गहन आंकलन का विषय "


      "आप सभी संगठन के बुद्धिजीवियों को मेरा सादर प्रणाम", 

       "महोदय 1974 के बाद 19 अप्रेल से 26 जून 2021 तक लगभग दो महीने आठ दिन गांव में रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । इस दौरान मैं चौखुटिया, देघाट, स्याल्दे गया था । बहुत बड़ा परिवर्तन देखा चाऊमीन वाला मुस्लिम, नाई, बढयी, मिस्त्री, कबाड़ी, और बहुत से कार्यों में लगे हुए मुस्लिम, किरायेदार मुस्लिम, सैलून वाला मुस्लिम, खानसामा मुस्लिम । सर्व समाज की गहरी दोस्ती, एक साथ खान पान । ये परिवर्तन हुआ है उत्तराखंड में।"  

     " यदि मेरे क्षेत्र में कुछ नहीं बदला तो वह है शिल्पकार समाज के साथ भेद भाव । जो शिल्पकार सदियों से जीवन- मरण के साथी थे ?, है ?, शायद भविष्य में भी रहेंगे ?  हां मधुशाला में शिल्पकारों के साथ कोई भेदभाव नहीं । आज के युग में भी इस प्रकार का व्यवहार मार्मिक एवं दुःखदाई है जो गंभीर सोचनीय विषय है । आप सभी बुद्धि जीवी हैं । इस विषय पर मंथन कर  समाज में फैली इन कुरितियों को दूर करने का प्रयास करें । मैं देखकर आहत हुआ हूं, पता नहीं उत्तराखंड इस महामारी से कब तक मुक्त होगा ? श्री राम ही जाने ? मानव का मानव से घृणा ईश्वर भी शायद माफ़ ना करें । ईश्वर सभी को सुमति प्रदान करने की कृपा करें । क्षमा चाहता हूं कि अपने मन की बात आप सभी को अपना समझ कर सांझा की है।  किसी शब्द से किसी को भी बुरा लगे तो नतमस्तक क्षमा चाहता हूं, गुसाईं राम आर्य गवालबीना ।"

      आर्य जी ने अपनी वेदना मुझे भेजी जिसे मैं उसी रूप में अपने मित्रों/पाठकों को भेज रहा हूं जो नियमित रूप से प्रतिदिन मेरे शब्दों को पढ़ते हैं। बेझिझक बड़ी विनम्रता से अपने दिल के दर्द को हम सब तक पहुंचाने वाले आर्य जी को साधुवाद ।  मेरा मानना है कि हमने प्रभू राम की मर्यदानुसार निषाद -सबरी की तरह कोई भी सामाजिक भेदभाव नहीं करना चाहिए और किसी के साथ ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए जिससे उनकी भावनाओं को चोट पहुंचे । दुख होता है इस मानसिकता से । जागर में कोई भेदभाव नहीं होता, शराब पीने में भेदभाव नहीं होता, मकान बनाने या किसी भी प्रकार की मदद लेने में भी भेदभाव नहीं होता । मुझे उम्मीद है शिक्षा के प्रकाश से यह सामाजिक विषमता का अन्धकार एक दिन जरूर मिटेगा। 

     मेरे दोनों हिंदी उपन्यास " जागर " और " बंजर में अंकुर" इस व्यथा - वेदना को उकेरते हुए सामाजिक विषमता दूर करने का दीप प्रज्ज्वलित करते हैं । "शिल्पकार वेदना " मेरी कविता भी इस समस्या पर बेझिझक मुंह खोलने की धात लगाती है । कुमाउनी भाषा में लिखा गया मेरा उपन्यास " छिलुक " भी इस समस्या पर गहराई से झांकता है जब कार्यालय का शिल्पकार चपरासी सवर्ण बाबुओं को शराब, पानी और चखना ड्यूटी समझकर परोसता है और खुद भी भागीदारी करता है । उपरोक्त शब्दों को भेजने वाले सामाजिक कार्यकर्ता आर्य जी की वेदना 'मुस्लिम समाज से कोई भेदभाव नहीं जबकि हिंदू होते हुए भी शिल्पकार समाज के साथ भेदभाव क्यों ?' इस प्रश्न का उत्तर सबको मिलकर ढूढना होगा । मिटेगा अंधेरा, एक दिन जरुर होगा सबेरा । 

पूरन चन्द्र कांडपाल


02.07.2021


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