Thursday 10 August 2017

Pattharmar yuddh bagwaal : पत्थरमार युद्ध बग्वाल

बिरखांत -171 : पत्थर युद्ध : बग्वाल

     उत्तराखंड में पुरातन परम्पराएं आज भी  जड़ जमाये हैं | बड़ी मुश्किल से पशु-बलि प्रथा अब कम हो रही है लेकिन चोरी-छिपकर खुकरी- बड्याठ अब भी चल रहे हैं | देवालयों में रक्तपात बहुत ही घृणित कृत्य हैं परन्तु जिन लोगों ने इसे उद्योग बना रखा है उनके बकरे बिक रहे हैं | जेब किसी की  कटती है और पिकनिक कोई और मनाता है | हम किसी से शिकार मत खाओ नहीं कह सकते परन्तु देवता- मसाण- हंकार के नाम पर किसी की जेब काटना जघन्य पाप ही कहा जाएगा | मांसाहार के लिए बुचड़ के दुकानें गुलज़ार तो हैं ही |

   परम्परा के नाम पर उत्तराखंड में आज भी मानव –रक्त बहाया जाता  है  | प्रतिवर्ष रक्षाबंधन के दिन जिला चम्पावत में वाराहीधाम देवीधुरा के खोलीखाड़- दूबाचौड़ मैदान में पत्थरों की बारिश होती है । भलेही इस वर्ष इसे फलों की वर्षा का रूप देने की कोशिश हुई फिर भी पत्थर वर्षा हुई और 334 लोग घायल हो गए । एक दूसरे पर पत्थर बरसाने वाले चार खामों के लोग बड़े जोश से मैदान में कूद पड़ते हैं | इस पत्थरबाजी को बग्वाल भी कहा जाता है | अपराह्न में मदिर के पुजारी की शंख बजाते ही पत्थरबाजी शुरू होती है जो कुछ मिनट तक पत्थरों की वर्षा से कई लोगों का खून बहने लगता है | जब पुजारी को यकीन हो जाता है कि एक व्यक्ति के खून के बराबर रक्तपात हो चुका है तो वे युद्ध बंद करा देते हैं  | इस युद्ध में दर्शकों सहित कई व्यक्ति घायल होते हैं जिनका बाद में उपचार किया जाता है |

     यह परम्परागत पाषाण युद्ध वर्षों से चला आ रहा है | इसी प्रकार का पत्थर युद्ध जिला अलमोड़ा के ताड़ीखेत ब्लाक स्तिथ सिलंगी गाँव में भी वर्षों पहले बैशाख एक गते (१४ अप्रैल ) को प्रतिवर्ष आयोजित किया जाता था जिसमें स्थानीय लोगों की दो टीमें ‘महारा’ और ‘फर्त्याल’ भाग लेती थीं | सूखे गधेरे में एक स्थान (खइ ) तय किया जाता था जिसे पत्थरों की वर्षा के बीच हाथ में ढाल लेकर पत्थरबाज छूने जाते थे | जो इस स्थान पर पहले पहुँच जाय उसे विजेता माना जाता था | यहाँ भी कई लोग घायल होते थे जिनका उपचार किया जाता था या खाट में डाल कर रानीखेत अस्पताल में ले जाया जाता था |

     पत्थरबाजी से खून बहाने को ‘देवी को खुश करने’ की बात मानी जाती थी | लगभग २०वीं सदी के ५वें दसक ( ६०-६५ वर्ष पहले ) के दौरान नव-युवकों ने इस पाषण युद्ध को बंद करवा दिया और उस स्थान पर झोड़े  (खोल दे देवी, खोल भवानी, धारमा केवाड़ा ...आदि ) गाये जाने लगे | अब झोड़े भी बंद हो गए हैं क्योंकि कौतिक एक नजदीकी स्थान पर होने लगा है, झोड़े वहीं होने लगे हैं | पत्थरमार युद्ध बंद होने से न कोई रोग फैला और न कोई अनहोनी हुई जैसा कि पुरातनपंथी भय दिखाकर प्रचारित करते थे |

   चम्पावत की इस पत्थरबाजी के खून –खराबे में भाग लेने वाले जोश से सराबोर खामों को आपस में मिल-बैठ कर सर्वसम्मति से इस पाषाण युद्ध को बंद करवाना चाहिए | इसकी जगह कोई खेल की टूर्नामेंट आरम्भ की जानी चाहिए जिसमें चार खामों की चार टीम या अन्य स्थानीय टीमें भाग लें और साथ में सांस्कृतिक कार्यक्रम भी करायें | पुरस्कार के लिए ट्रॉफी रखें |  ऐसा करने से उत्तराखंड में खेलों को प्रोत्साहन भी मिलेगा | हमें समय के साथ बदलना चाहिए।

      देश में पत्थरबाजी की कोई प्रतियोगिता नहीं होती | बग्वाल का जोश खेलों में परिवर्तित होना चाहिए | ‘देवी नाराज हो जायेगी’ का डर ग्राम सिलंगी में भी था जो एक भ्रम था | रुढ़िवाद को सार्थक कदम उठाकर और सबको साथ लेकर समाप्त करते हुए खेल भावना युक्त नूतन परम्परा आरम्भ करने की पहल होनी चाहिए | अगली बिरखांत में कुछ और...

पूरन चन्द्र काण्डपाल
10.08.2017

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