Wednesday, 29 July 2020

Pooja/Ibaadat manthan जरूरी : पूजा/इबादत मंथन जरूरी

बिरखांत - 330 : पूजा/इबादत प्रथा पर मंथन जरूरी

       हमने हमेशा ही पूजा या इबादत या धर्म के नाम पर पशुबलि  को अनुचित कहा है । कुछ मित्र ताने मारते हुए मुझ से कहते हैं, 'कभी मुसलमानों के बारे में भी लिखो, क्यों हमेशा हिन्दुओं के पीछे पड़े रहते हो ?' मित्रो, ऐसा नहीं है । मैं हिन्दू से पहले हिंदुस्तानी या भारतीय हूं और मानवीय सरोकारों से वशीभूत होकर कुछ शब्द लिख देता हूं । चार दशक से कलमघसीटी हो रही है । जन- सरोकारों पर लिखते आ रहा हूं । हर विसंगति और विषमता तथा अंधविश्वास के विरोध में लिखता- बोलता हूं ।

कबीर के दोनों दोहे याद हैं ।

पहला- 

 'पाथर पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूं पहार;

 ता पर ये चाकी भली, पीस खाये संसार ।' 

दूसरा - 

'कांकर-पाथर जोड़ के, मस्जिद लेई बनाय; 

ता पर मुल्ला बांघ दे, क्या बहरा हुआ खुदाय ।' 

मोको कहां ढूंढे रे बंदे भी याद है । 

'ना तीरथ में ना मूरत में, ना काबा कैलाश में; 

ना मंदिर में ना मस्जिद में, ना एकांत निवास में ।' 

बच्चन साहब की मधुशाला भी कहती है -

"मुसलमान और हिन्दू हैं दो, 

एक मगर उनका हाला; 

एक है उनका मदिरालय, 

एक ही है उनका प्याला; 

दोनों रहते एक न जब तक 

मंदिर -मस्जिद हैं जाते, 

बैर कराते मंदिर-मस्जिद 

मेल कराती मधुशाला ।"

     दोनों संप्रदायों को देश और समाज के हित में एक-दूसरे का सम्मान करते हुए मध्यमार्ग से संयम के साथ चलना चाहिए । सत्य तो यह है कि स्वतंत्रता आंदोलन सबने मिलकर लड़ा और हिंदुस्तान का अंतिम बादशाह बहादुर शाह जफर कहता था, "हिंदियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की, तख्ते लंदन तक चलेगी तेग हिंदुस्तान की ।" जब फिरंगियों को लगा कि हिंदुस्तान आजाद करना ही पड़ेगा तो उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम एकता को भंग करने के कई षडयंत्र रचे और जाते -जाते अपने षड्यंत्र में सफल भी हो गए ।

     देश को स्वतंत्र हुए 73 वर्ष हो गए हैं और देश के दो मुख्य सम्प्रदायों की आपसी नफरत को बढ़ाने का षड्यंत्र आज भी जारी है । यदि यह नफरत प्यार में बदल जाएगी तो अमन-चैन के कई दुश्मनों की दुकानें बंद हो जाएंगी । फिर वे सियासत किस पर करेंगे ? ये लोग नफरत की आग जलाकर अपनी रोटी सेकते आये हैं और सेकते रहेंगे । इस नफ़रत से देश का विकास भी बाधित होता है और हम सृजनात्मक कर्मों से भटक कर इधर - उधर उलझ जाते हैं ।

     स्पष्ट करना चाहूंगा कि ईश्वर कभी भी पशु -बलि नहीं लेता और न अल्लाह ईद में पशु -कुर्बानी लेता है । धर्म और आस्था के नाम पर किसी पशु की कुर्बानी या बलि एक अमानुषिक कृत्य है । कोई मांसाहार करता है तो करे परन्तु ईश्वर के नाम पर नहीं । सामाजिक सौहार्द बिगाड़ने के लिए नफरत का पुलाव पका कर नहीं बांटा जाय । जाति-धर्म- सम्प्रदाय की लड़ाई में हमें झोंक कर अपना उल्लू सीधा करने वालों से सावधान रहना ही वक्त की मांग है ताकि हम कम से कम अगली पीढ़ी को तो इस संक्रामक रोग से बचा सकें ।

         ईद की सभी को शुभकामना । जब वे हमें दीपावली की शुभकामना कहते हैं, कांवड़ियों की सेवा में पंडाल लगाते हैं, तीर्थ यात्राओंं में सहयोग करते हैं,  होली - रामलीला में संगत करते हैं  तो हमें भी उन्हें ईद की शुभकामना देने में संकोच नहीं करना चाहिए । देश का सौहार्द्र इसी इंद्रधनुषी रंग में लहलहाएगा। 

पूरन चन्द्र काण्डपाल

30.07.2020

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