बिरखांत – 326 : बेडू पाको ‘बारा मासा’ नहीं ‘बारियो मासा’
कुमाउनी में गाया जाने वाला सुप्रसिद्ध गीत ‘बेडू पाको’ बारा मासा नहीं बल्कि ‘बारियो मासा’ है | इस बात का रहस्य मुझे नवम्बर 2014 में कुमाउनी भाषा सम्मलेन अल्मोड़ा में तब हुआ जब एक साहित्यकार (नाम विस्मृत) ने मुझे मेरि पुस्तक ‘उज्याव’ (उत्तराखंड सामान्य ज्ञान, कुमाउनी में) के पृष्ठ 28 पर छपी पंक्तियों पर विमर्श किया | मैंने ‘उज्याव’ में लिखा है “बेडू पाको के रचियता ब्रजेन्द्र लाल शाह और गायक मोहन उप्रेती हैं|” वे बोले, “ आपने बहुत अच्छी किताब लिखी है और शायद यह इस प्रकार की पहली किताब है | जो पढ़ेगा उसे बहुत कुछ मिलेगा इस पुस्तक में | परन्तु आपके ‘बेडू पाको’ गीत पर में इत्तफाक नहीं रखता | यह एक लोक ग़ीत है और लोक में चलते आया है | पता नहीं कब और किसने लिखा और पहली बार किसने गाया ?
लोक गीत पर कब्जा करना ठीक नहीं |” उन्होंने एक पुस्तक के पृष्ठ दिखाते हुए पुन: कहा, ”महाराज जी यह ‘बेडू पाको बारा मासा’ नहीं बल्कि बारा मासा की जगह ‘बारियो मासा’ है |” मैंने पुस्तक का अनुच्छेद पढ़ा | कुछ इस तरह लिखा था, “बेडू बारह महीने नहीं पकता | लोग इस गीत को गलत गा रहे हैं | बेडू भादो महीने में पकता है जिसे ‘बारिय’, ‘बारियो’ या ‘काला’ महीना कहते हैं |” ‘बारिय’, या ‘बारि’ का अर्थ है ‘मना’ या ‘बंद’ | जैसे ‘उसने लहसुन-प्याज ‘बारि’ रखा है, ब्वारि ल भौ लिजी मर्च-खुश्याणी, खट-मिठ ‘बारि’ रौछ’ (बहू ने बच्चे की वजह से मिर्च, खट्टा-मीठा खाना बंद कर रखा है)| भादो महीने को काला या ‘बारिय’ महीना मानने के कारण लोग इस माह कोई शुभ कार्य भी नहीं करते थे| नव-विवाहिता को भादो महीने में मायके भेजा दिया जाता था |
आषाड़-सावन में गुड़ाई पूरी हो जाने के कारण भादो में कुटला (कुटौव) ‘बारि’ दिया जाता था अर्थात कसि -कुटव पर महिलाएं हाथ नहीं लगाती थीं | भादो में फसल गबार (पूर्ण जवानी) आने से खेतों में जाने की मनाही होती थी | अत: यह बात मुझे स्पष्ट उचित लगती है कि यह गीत ‘बारियो मासा’ गाया जाना चाहिए क्योंकि भादो एक ‘बारिय’ महीना है | हम सब जानते हैं कि बेडू बारहों महीने नहीं पकता, केवल भादो (अगस्त-सितम्बर) ‘बारिय’ महीने में ही पकता है |
पूरन चन्द्र काण्डपाल
10.07.2020
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