Thursday 2 July 2020

Chhutigo pahad ka vilap kyon ? : छुटिगो पहाड़ का विलाप क्यों ?

बिरखांत – 324 : ‘छुटिगो पहाड़’ का विलाप क्यों ?

     कुछ कुमाउनी-गढ़वाली गीत मुझे यह सोचने पर मजबूर करते हैं कि इनमें ‘छुटिगो पहाड़’ (पहाड़ छूट गया), ‘बिछुडिगो पहाड़’ (पहाड़ बिछुड़ गया) जैसे विरह-विलाप के शब्द क्यों होते हैं ? ऐसा सोचने या कहने की जरूरत क्या है ? हम जो भी पहाड़ (अपने क्षेत्र) से दूर हैं, अपनी मर्जी से हैं | हमने पहाड़ छोड़ा भी अपनी मर्जी से | हमें किसी ने भगाया नहीं, किसी ने निकाला नहीं, किसी ने हमें खदेड़ा भी नहीं, किसी ने ऐसी हरकत भी नहीं की जो हम पहाड़ छोड़ने पर मजबूर हो गए | हमें किसी ने विस्थापित भी नहीं किया, ( टिहरी को छोड़ कर ) | दिल्ली सहित देश के मैदानी भागों में उत्तराखंडियों की आवादी लाखों में है | हम प्रवासी भी नहीं हैं, अपने देश में कहीं पर भी रहने पर उसे प्रवासी नहीं कहते | प्रवासी तो वे होते हैं जो दूसरे देश से आते हैं जैसे साइबेरिया से प्रवासी पक्षी आते हैं |

     यह सत्य है यदि प्रत्येक उत्तराखंडी को राज्य में रोजी-रोटी-रोजगार मिलता या वर्षा आधारित कृषि नहीं होती तो वह मैदानी क्षेत्रों की तरफ खानाबदोष बन कर पलायन नहीं करता | वैसे बौद्धिक पलायन तो सभी को स्वीकार्य है | हम जो भी पहली बार अपने क्षेत्र से आए हमने अपने लिए रोजगार ढूंढा | कुछ वर्ष बीतने के बाद पत्नी संग आई | बच्चे हुए, उन्हें पढ़ाया और उनके लिए भी यहां रोजगार ढूंढा, दामाद या बान भी ढूंढी | वक्त बीतते गया और हम तीसरी-चौथी पीढ़ी में आ गए | न्योते-पट्टे, दुःख-सुख और भैम (भ्रम-अंधविश्वास) पूजने  हेतु पहाड़ आना-जाना लगा रहा | कुछ लोग कहते हैं कि सेवा-निवृति होने के बाद पहाड़ वापस जाना चाहिए | परिवार के दो फाड़ कौन चाहेगा ?

     पहाड़ में जीवन पहले ही जैसा है | बुनियादी सुविधायें भी नहीं हैं | ( बी पी एल कार्ड ही जीवन का लक्ष्य नहीं होना चाहिए | ) उम्र गुजरने के बाद क्या कोई पत्नी पुनः दातुली-कुटली चला सकती है ? वह ज़माना चला गया जब बाल-विवाह कर छोटी सी दुल्हन घर में मां-बाप की सेवा कि लिए छोड़ कर लड़का चला जाता था | आज पूर्ण यौवन में विवाह बंधन होता है | कुछ सासू जी जरूर कहेंगी कि बहू उनकी सेवा में गांव में रहे परन्तु बेटी दामाद के संग रहे | विवाह के बाद पत्नी को तो पति के साथ रहना ही चाहिए | मजबूरी के सिवाय कौन पत्नी चाहेगी कि वह पति से दूर रहे और गोपाल बाबू गोस्वामी के विरही गीत (घुघूती न बासा..) गुनगुना कर आंसू टपकाए ?

     अत: जिसे पहाड़ जाना है जाए, उसे रोक कौन रहा है ? हम विदेश में नहीं हैं | भारत में हैं, भारत हमारी जन्मभूमि है, जी हां भारत माता | हम भारत में कहीं भी रहें उस थाती से प्यार करें परन्तु अपनी भाषा- इतिहास- सामाजिकता और सांस्कृतिक विरासत को न भूलें, आते- जाते रहें, जुड़ाव रखें क्योंकि यह उत्तराखंड की पहचान है अन्यथा हमें उत्तराखंडी कोई नहीं कहेगा | संकीर्णता छोडें, अपने को भारतवासी समझें और ‘छुटिगो पहाड़’ जैसे विरह-विलाप न करें | यदि इसके बाद भी विरह है तो फिर मसमसाएं नहीं, मणमणाट -गणगणाट न लगाएं, पहाड़ जाने की तैयारी करें | मेरे शब्दों का यह अर्थ न निकालें कि मैं किसी से पहाड़ जाने के लिए मना कर रहा हूं | जय भारत, जय उत्तराखंड |

( देश में कोरोना संक्रमण चरम पर है । अपना ख्याल रखें । देश में कई कर्मवीरों सहित 17 हजार+ से अधिक इस महामारी के ग्रास बन चुके हैं । बचाव ही एकमात्र उपाय ।)

पूरन चन्द्र काण्डपाल
02.07.2020

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