Wednesday 20 September 2017

Masaan jagar udyog : मसाण जागर उद्योग

बिरखांत –177 : मसाण / जागर उद्योग 

          मैंने गांव में बचपन से ही कई बार ‘मसाण’ की जागर (जातुर या जागरि) देखी | मुझे याद है तब मैं मिडिल स्कूल का छात्र था |  मसाण अर्थात एक काल्पनिक भूत या डर या कुंठा जो झस्स करने (अचानक डर से उत्पन्न मानसिक दबाव ) से किसी ब्वारि (बहू) या बेटी पर जबरदस्ती वहम डाल कर गणतुवा –दास या डंगरिया द्वारा लगाया जाता था (है) जिसे सौंकार (सास या ससुर अथवा मां-बाप) मान लेने में देर नहीं लगाते थे | इस त्रिगुट द्वारा मसाण ज्यादातर उस ब्वारि पर लग गया बताया जाता है जो अभी मां न बनी हो या जिसका ‘लड़का’ न हुआ हो, भलेही लड़कियां हुईं हों | 

     गांव या क्षेत्र में सभी लोग मसाण के बारे में जानते हैं क्योंकि जागर से इसका खूब प्रचार होता है | जागर भोजन के बाद (अब भोजन के साथ शराब भी दी जाती है ) रात को लगती थी (है)| डंगरिया दुलैंच (आसन) में बैठता था और भंगड़ी (सुल्पे में तम्बाकू) पीता था | दास ढोल बजाता था या हुड़का –थाली के साथ सुर में नृत्य गीत गाता था | ताल- सुर- लय से पंचकचहरी (अन्धश्रधा भीड़) के बीच सिर के बाल खोल कर ब्वारी को बैठे-बैठे या खड़े होकर दास द्वारा नाचने पर बाध्य किया जाता था | दास-डंगरिये द्वारा उस ब्वारी की बाल पकड़ना या उसकी पीठ ठोकना आदि उटपटांग हरकत और अनभिज्ञ भीड़ का मूक दर्शक बन कर देखे रहना मुझे बहुत दुख पहुंचाता था | 

     उम्र बढ़ने के साथ मैंने इस तमाशे का विरोध करना शुरू कर दिया जिसकी परिणति ‘जागर’ उपन्यास के रूप में हुई | हिन्दी अकादमी दिल्ली सरकार द्वारा वर्ष १९९५ में यह उपन्यास प्रकाशित हो गया | अंधविश्वास के साधकों और उक्त त्रिगुटे की दुकान इस उपन्यास से हिलने लगी और मैं उनकी आंखों का घूण (आंख में पिड़ाने वाला तिनका या पत्थर का चूरा) बन गया | बिरखांत को छोटी करता हूं | 

     मेरे गांव का दास अपने बेटे को भी दास बनाना चाहता था | मैंने उसे जबरदस्ती स्कूल भिजवाया | अपने बाप के साथ रौटी (ताशा) बजाते, ना-नुकुर करते, यदा-कदा पढ़ते हुए वह दस पास कर गया | उसे मैंने रिजर्व कोटे से सरकारी नौकरी की बात समझाई और वह सरकारी कलर्क बन गया | गांव में अब दास नहीं है परन्तु क्षेत्र में त्रिगुट द्वारा प्रायोजित जागर- मसाण –गणत उद्योग खूब चल रहा है | 

     वैज्ञानिक सत्य की सोच के बजाय पढ़े-लिखे युवा अंधविश्वास के सांकलों में बंधकर क्यों लकीर के फ़कीर बने हैं, हमारे इर्द-गिर्द यह प्रश्न आज भी गूंज रहा है | आखिर ऐसी क्या बात थी जो मुझे अन्दर ही अन्दर कचोट रही थी?  मैं बचपन से ही इस त्रिगुट की मिलीभगत को सुनता था | वे मुझे बच्चा समझते थे और मेरे ही सामने जागर का टानटोफड़ा (प्लान) बनाते थे | मैं स्कूल से आकर ग्वाला बनता था और जंगल में ये सब कुछ इनकी संगोष्ठी में सुनता था | घर –गांव में सभी इनके समर्थक थे इसलिए डर के मारे चुप रहता था | 

     ‘मसाण’ पूजने के बाद उस महिला की कोख में शिशु पनपने लगता था | इसका रहस्य जानने के लिए में पूने में चिकित्सकों एवं मनोवैज्ञानिकों से मिला | इसकी चर्चा अगली बिरखांत में ...

पूरन चन्द्र काण्डपाल
21.09.2017

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