Wednesday 3 April 2019

Wah bhoot nahee thaa : वह भूत नहीं था

बिरखांत - 258 : वह भूत नहीं था ।

      वर्ष 1995 में मेरा पहला उपन्यास ‘जागर’ हिंदी अकादमी दिल्ली के सौजन्य से प्रकाशित हुआ जो बाद में ‘प्यारा उत्तराखंड’ अखबार में किस्तवार छपा भी | जिसने भी इसी पढ़ा उसे अच्छा लगा | एक दिन महानगर दिल्ली में बड़े सवेरे उपन्यास का एक पाठक रेशम मेरे पास आकर बोला, “कका आज दिन में तीन बजे हमारी घर भूत की जागर है, मेरी पत्नी पर भूत नाच रहा है | एक कमरे का मकान है, बैठने की जगह नहीं है इसलिए केवल आपको और एकाध सयानों को बुला रहा हूँ | डंगरिया आएगा, दास नहीं है | वह बिना ढोल -हुड़के के ही हात –पात जोड़कर जाच जाता है | आप जरूर आना |” तीन वर्ष पूर्व रेशम की शादी हुयी थी | पांच लोगों के इस परिवार में माता-पिता, एक भाई और पति- पत्नी थे | परिवार शिशु के लिए भी तरस रहा था |

       मैं ठीक तीन बजे वहाँ पहुँच गया | वहाँ इन पाँचों के अलावा पड़ोस के दो जोड़ी दम्पति और डंगरिया मौजूद थे | धूप-दीप जली, डंगरिया दुलैंच में बैठा और रेशम के पिता जोड़े हुए हाथों को माथे पर टिका कर गिड़गिड़ाने लगे, “हे ईश्वर- नरैण, ये मेरे घर में कैसी हलचल हो गयी है ? कौन है ये जो मेरी बहू पर लगा है | गलती हुई है तो मुझे डंड दे भगवन, इसका पिंड छोड़ |” डंगरिया कापने लगा और बहू भी हिचकोले-हिनौले खेलने लगी | बहू की तरफ देख रेशम के पिता जोर से बोले, “हम सात हाथ लाचार हैं, तू जो भी है इसे छोड़, मुझे पकड़, मुझे खा |” वे डंगरिये की तरफ देख बोले, “तू देव है, दिखा अपनी करामात |” इस बीच बहू बैठे- बैठे सिर के बाल हिलाती हुई डंगरिये ओर बढ़ी | डंगरिये ने उसे बभूत लगाना चाहा जिस पर वह बेकाबू घोड़ी की तरह बिदक पड़ी मानो वह उस पर झपट पड़ेगी | डंगरिया बचाव मुद्रा में आ गया और डरी हुयी आँखों से मुझे देखने लगा |

      सभी इस दृश्य से दंग थे | रेशम मेरी तरफ देख कर बोला, “यह तो हद हो गयी | इसका कोई गुरु- गोविंद ही नहीं रहा | ऐसा डंगरिया नहीं मिला जो इस पर सवा सेर पड़ता | परिवार की परेशानी देख मेरे मन में एक विचार आया और मैं उठकर बहार जाने वाले दरवाजे के पास बैठ गया | मैंने गंभीर मुद्रा बनाते हुए जोर से कहा, “बिना गुरु की अंधेरी रात ! बोल तू है कौन ? किस गाड़- गधेरे से आया है ? खोल अपनी जुबान | आदि-आदि..” मेरी भाव-भंगिमा और बोल सुन कर सभी समझने लगे कि मैं उस डंगरिये से बड़ा डंगरिया हूँ | मेरी ओर देखकर रेशम की पिता बोले, “परमेसरा रास्ता बता दे, मेरा इष्ट –बदरनाथ बन जा |” मैंने उन्हें संकेत से चुप कराया | मैं रेशम की पत्नी की तरफ देख कर बोला, “तू बोलता क्यों नहीं ?नहीं बोलेगा तो मैं बुलवा के छोडूंगा | मसाण- भूत का इलाज है मेरे पास |” वह नहीं बोली | मैंने रेशम के ओर देखकर जोर से कहा, “धूनी हाजिर कर दे सौंकार |” रेशम- “परमेसरा यहाँ धूनी कहाँ से लाऊँ?” मैं- “धूनी नहीं है तो स्टोव हाजिर कर दे |” रेशम तुरंत रसोई से स्टोव, पिन और माचिस ले आया | मेरे संकेत पर उसने स्टोव जलाया | मैं- “चिमटा हाजिर कर दे सौंकार |” वह भाग कर चिमटा ले आया |सभी मुझे देव अवतार में समझ रहे थे जबकि ऐसा नहीं था | मैं स्वयं डरा हुआ था | मैंने ठान रखी थी, यदि रेशम की पत्नी ने मुझ पर आक्रमण कर दिया तो दरवाजे से बाहर खिसक लूँगा |

      मैंने स्टोव की लपटों में चिमटा लाल करते हुए रेशम की पत्नी की तरफ देख कर कहा, “जो भी भूत, प्रेत,  पिसाच, मसाण, छल, झपट तू इस पर लगा है, अगर तेरे में हिम्मत है तो पकड़ इस लाल चिमटे को, वर्ना मैं स्वयं इस चिमटे को तेरे शरीर पर टेक दूंगा |” मैं उसे डराने के लिए बोल रहा था | लाल चिमटे को देख रेशम की पत्नी का हिलना बंद हो गया और सिर पर पल्लू रखते हुए वह धीरे से उठ कर पीछे बैठ गयी | अब मैं निडर हो गया और बुलंदी से बोला, “जो भी तू इस पर लगा था आज तूने इस धूनी- चिमटे के सामने इसका पिंड छोड़ दिया है | आज से इसका रूमना- झूमना, रोना-चिल्लाना, चित्त-परेशानी, शारीरिक-मानसिक क्लेश, रोग-व्यथा सब दूर होनी चाहिए |” इतना कहते हुए मैंने स्टोव की हवा निकाल दी ।

      जागर समाप्त हो चुकी थी | आये हुए डंगरिये ने मुझे अपने से बड़ा डंगरिया समझ कर हाथ जोड़े | रेशम पत्नी को आगे लाया और मुझ से उसे बभूत लगवाया | बभूत लगाते हुए मैंने उससे कहा, “आज से तुम निरोग हो, निश्चिंत हो और निडर हो | खुश रहो, अपने को व्यस्त रखो, अध्ययन करो, खाली मत बैठो | भूत एक बहम है, कल्पना है | खाली बैठने से अवांच्छित, उल- जलूल विचार मन में पनपते हैं | इसीलिये खाली दिमाग को भूत का घर भी कहते हैं | जीवन का एक मन्त्र है कर्म करना, व्यस्त रहना और इश्वर में विश्वास रखना बस |” इतना कह कर मैं उठा और चला आया |

      यह कोई सोची समझी योजना नहीं थी | सबकुछ अचानक हुआ | कई लोग मुझे भूत साधक समझने लगे | जब भूत है ही नहीं तो साधूंगा क्या ? यह एक भ्रम -रोग है जो यौन वर्जना, वहम, आक्रामक इच्छाओं की अपूर्ति से कुंठाग्रस्त बना देता है और दमन करने पर भावावेश में यह रूप प्रकट होता है | मनुष्य से बड़ा कोई भूत है ही नहीं जो सर्वत्र पहुँच चुका है | रेशम की कहानी हमें यही बताती है की उसकी पत्नी पर कोई भूत नहीं था | अंधविश्वास की सुनी- सुनाई बातों के घेरे में वह कुंठित हो गयी थी | अगले ही वर्ष उनके घर शिशु का आगमन हो चुका था | हमें फल की इच्छा न रखते हुए कर्म रूपी पूजा में व्यस्त रहना चाहिए | अंधविश्वास का अँधेरा कर्मयोग- प्रकाश के आगे कभी नहीं टिक सका है |

(मेरी पुस्तक ‘उत्तराखंड एक दर्पण - 2007’ के आधार पर उधृत लेख )

पूरन चन्द्र काण्डपाल
04.04.2019

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