खरी खरी -765 : "मुझे नहीं पता श्रंंगार।"
उत्तराखंड के पर्वतीय भाग में ग्रामीण महिलाओं के लिए विज्ञान कोई बदलाव नहीं लाया । वह कहती है, "मेरे लिए कुछ भी नहीं बदला । मैं जंगल से घास -लकड़ी लाती हूँ, हल भी चलाती हूँ, दनेला (दन्याइ) लगाती हूँ, निराई-गुड़ाई करती हूँ, खेत में मोव (गोबर की खाद) डालती हूँ, दूर-दूर से पीने का पानी लाती हूँ, राशन की दुकान से राशन लाती हूं । पशुपालन करती हूँ और घर -खेत-आँगन का पूरा काम करती हूँ । वर्षा हो गई तो कुछ अनाज हो जाता है उसे भी सुंगर या बानर खा जाते हैं । इस उजाड़ को देखकर लगता है कि क्यों हमने इन खेतों में बीज बोया । इस उजाड़ को देखकर सांस अटक जाती है । मैं व्यस्त नहीं रहती बल्कि अस्त - व्यस्त रहती हूं । मुझे पता नहीं चलता कि कब सूरज निकला और कब रात हुई । मुझे नहीं पता श्रंगार क्या होता है ।"
वह चुप नहीं होती, बोलते रहती है, ''गृहस्थ के सुसाट -भुभाट, रौयाट - बौयाट में मुझे पता भी नहीं चलता कि मेरे हाथों- एड़ियों में खपार (दरार) पड़ गये हैं और मेरा मुखड़ा फट सा गया है, मेरे गालों में चिरोड़े पड़ गए हैं । सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले अपने बच्चों को तो मैं बिलकुल भी समय नहीं दे पाती । सिर्फ उनके लिए रोटी बना देती हूँ, हफ्ते में एकबार उनके कपड़े धो देती हूं बस । बच्चों से उम्मीद करती हूं कि से मेरे काम में हाथ बटाएं परन्तु उनको पढ़ाई भी करनी होती है इसलिए उनसे कुछ भी नहीं कहती । उनकी पढ़ाई से भी मैं खुश नहीं होती क्योंकि वे खींच - खांच के पास होते हैं ।
अब कुछ बदलाव कहीं- कहीं पर दिखाई देता है वह यह कि खेत बंजर होने लगे हैं । नईं- नईं बहूएं आ गईं हैं जो पढ़ी लिखी हैं । वे यह सब काम नहीं करती । हम भी बेटियों को पढ़ाकर ससुराल भेज रहे हैं जो वहाँ यह सब काम नहीं करेंगीं । लड़कों के लिए यहाँ रोजगार नहीं है और वे बहू संग नौकरी की तलाश में निकल गए हैं या निकल रहे हैं । सरकार - दरबार से कहती हूं कि तुम ढूंढते रहो उजड़ते गाँवों से पलायन के कारण... पर गांव तो खाली हो गए हैं । यहां वे ही रह गए है जिनका कोई कहीं ले जाने वाला नहीं है ।"
पूरन चन्द्र काण्डपाल
30.12.2020
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