Tuesday 14 January 2020

Uttraini Makaraini : उत्तरैनी मकरेनी

बिर- 301 : उतरैणी/मकरैणी/मकर संक्रांति/उतरायण (उत्तराखंड की सांस्कृतिक विरासत)

    प्रतिवर्ष 14 (इस वर्ष 15 को ) जनवरी को उतरैणी /मकरैणी/मकर संक्रांति उत्तराखंड सहित देश के कई राज्यों में बड़ी धूमधाम से मनाई जाती है | पौराणिक मान्यता के अनुसार इस दिन पृथ्वी मकर राशि में प्रवेश करती है जो एक खगोलीय घटना है जिसे ‘संक्रमण’ या ‘संक्रांति’ कहा जाता है | इस दिन से ही शिशिर ऋतु का माघ महीना आरम्भ होता है | यह त्यौहार पूरे देश में अलग-अलग नामों से मनाया जाता है | उत्तराखंड में ‘उतरैणी’ या ‘मकरैणी’ या ‘मकर संक्रांति’ के नाम से, असम में ‘बीहू’, हिमाचल-जम्मू-कश्मीर-पंजाब में लोहड़ी, बंगाल में ‘संक्रांति’, तमिलनाडु में ‘पोंगल’, उत्तरप्रदेश में ‘संकरात’, बिहार-पूर्वी उत्तरप्रदेश में ‘खिचड़ी’, गुजरात में ‘उतरायण’, ओडिशा में ‘मित्रपर्व’, तथा महाराष्ट्र में ‘तिलगुल’ आदि |

       इस दिन लोग नदियों में किये गए स्नान को पुण्य मानते हैं और पाप कटने की बात करते हैं | केवल स्नान करने से पुण्य कैसे मिल जाएगा और पाप कैसे कट जाएगा, यह एक श्रध्दा की बात है | पाप तो तब कटेगा जब उसका प्रायश्चित हो और उस पाप कर्म की पुनरावृति नहीं हो | पुण्य तब मिलेगा जब हम नदी में कारसेवा (श्रमदान) करके नदी की गन्दगी साफ़ करेंगे | यहाँ तो हम नदी में वह सब कुछ डाल आते हैं जिसकी हमें जरूरत नहीं है | स्वर्ण मंदिर अमृतसर में भी लोग स्नान करते हैं परन्तु कारसेवा से तालाब की मिट्टी भी निकालते हैं | हम जहां भी गए गन्दगी डाल आते हैं | विश्व के सबसे ऊँची चोटी ऐवरेस्ट में भी कूड़े के ढेर हमारे पर्वतारोहियों और शेरपाओं ने ही डाले  हैं |

     मकर संक्रांति के दिन देश में कई नदियों के किनारे या पड़ाओं में मेले लगते हैं | उत्तराखंड के बागेश्वर में गोमती-सरयू नदियों के संगम पर इस दिन बहुत बड़ा मेला लगता है जिसमें मुख्य तौर से स्थानीय वस्तुओं का व्यापार होता है | साथ ही कई प्रकार के सांस्कृतिक आयोजन भी होते हैं जिनमें स्वतंत्रता आंदोलन में उत्तराखंडियों की भागीदारी को प्रदर्शित किया जाता है । उतरैणी के अवसर पर उत्तराखंड में कौवों को पक्वान खिलाएं जाते हैं क्योंकि शीतकाल में भी कौवा उत्तराखंड से पलायन नहीं करता । यह त्योहार उत्तराखंडियों के पक्षी-पर्यावरण प्रेम को भी दर्शाता है ।

      बागेश्वर मेले से ही उत्तराखंड में व्याप्त ‘छुआछूत’ के उन्मूलन का श्रीगणेश भी हुआ | जो लोग ‘छुआछूत’ के पोषक थे उनके बारे में अन्य लोग कहते थे, “खणी- निख़णी आब बागसर देखियाल”, अर्थात खाने- नहीं खाने वालों का पता बागेश्वर में लगेगा जहां  अलग से कुलीन रसोई की व्यवस्था नहीं होती | उतरैणी के दिन कौवे को बुला बुला कर भोजन भी कराया जाता | शीत काल में इस पक्षी को बचाने का यह एक पर्यावरण से जुड़ा सरोकार है |

      बागेश्वर उतरैणी मेले का स्वतंत्रता आन्दोलन में भी बहुत बड़ा योगदान है | “लड़ाइ लड़ी जब देशल आजादीकि उत्तराखंडी पिछाड़ी नि राय, फिरंगियों कैं यस खदेड़ौ उनूल भाजनै पिछाड़ी नि चाय”, (जब देश ने आजादी की लड़ाई लड़ी तो उत्तराखंडी पीछे नहीं रहे | उन्होंने अंग्रेजो को ऐसे भगाया कि उन्होंने ने भागते हुए पीछे नहीं देखा | ) बागेश्वर में 13 जनवरी 1921 को उतरैणी के दिन अंग्रेज डिप्टी कमिश्नर के सामने कुमाऊं केशरी बद्री दत्त पांडे जी के कहने पर ‘कुली बेगार’ के सभी रजिस्टर वहाँ सरयू -गोमती के संगम में बहा दिए गए |

      इस तरह उत्तराखंड में ‘कुली बेगार’ (बिना पारिश्रमिक दिए जोर-जबरदस्ती वहाँ के लोगों से बोझा/ डोली/ कमोड उठवाना) के कलंक का अंत हुआ | अंग्रेजों के जुल्म की कभी ख़त्म नहीं होने वाली व्यथा बहुत लम्बी है | इसे से सांस्कृतिक आयोजनों में दिखाया जाना चाहिए ताकि भावी पीढ़ी को भी उत्तराखंडियों द्वारा देश की स्वतंत्रता के लिए लड़ी गई लड़ाई का ज्ञान हो और उससे प्रेरणा मिले । सभी मित्रों को उत्तरैणी की शुभकामनाएं ।

पूरन चन्द्र काण्डपाल
15.01.2020

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