Wednesday 8 January 2020

Kala mahina : काला महीना

बिरखांत 300 : काला महीना (काव महैंण)

      उत्तराखंड और उत्तराखंड से बाहर भी अक्सर सुनने में आता है कि आजकल काला महीना (काव महैंण) लगा है इसलिए ये मत करो और वो मत करो । क्या है ये काला महीना ?  विज्ञान में कोई काला या किसी रंग का महीना नहीं है परन्तु जब से मुझे याद है मैंने कर्मकांडी ब्राह्मणों से और अपने बुजर्गों से काले महीनों के बारे में सुना है और जिसकी समाज में पहले बहुत मान्यता थी परन्तु आज भी कुछ न कुछ मान्यता बनी हुई है ।

       हिंदी महीनों में 6ठा महीना भादो (14 अगस्त से 13 सितम्बर) और 10वां महीना पूस ( 14 दिसम्बर से 13 जनवरी) दो काले महीने माने जाते हैं । ज्योतिष वाले इसका जो भी कारण बताएं, इसके पीछे लोक-विज्ञान है । भादो और पूस के महीनों में उत्तराखंड में खेती का काम नहीं होता । सावन में गुड़ाई- निराई पूरी हो जाती है और मंगसीर के अंत तक असोज समेरने के बाद घास- लकड़ी एकत्र करने का कार्य पूरा हो जाता है । घास के लुटे लग जाते हैं और कंघौव में जलाने के लिए लकड़ियां सज जाती हैं ।

     अधिकांश लोग (ससुराल वाले) बहू को ससुराल से मायके भेजने में कभी खुश नहीं होते (बात उत्तराखंड की है) थे/हैं। अब बदलाव है क्योंकि बहू भी ज्यादा दबायस सहन नहीं करती । करे भी क्यों ? क्योंकि अब बाल विवाह भी नहीं होते और बहू अनपढ़ भी नहीं होती । इसलिए उस दौर में लोक-विज्ञानियों ने कुछ ऐसा सोचा ताकि बहू कुछ दिन मायके भेजी जाय । अतः उन्होंने भादो और पूस को काला महीना घोषित करते हुए यह भी कहा कि 'काले महीनों में बहू ससुरालियों (विशेषकर पति, जेठ और ससुर ) का मुँह न देखे और देखेगी तो अनहित होगा । इस तरह बहू को साल में दो महीने सास- ससुर की बंधुवा मजदूरी से मुक्ति मिल जाती थी और बहू इन दो महीनों में मायके जाकर आराम करते हुए अपने फटे हुए हाथ -पांवों -मुखड़े की दरारों पर मलहम (तेल) लगाते हुए माँ के सामने दो आंसू गिरा आती थी और माँ के आंसू पोछ आती थी ।

      काले महीनों के आगमन पर जहां बहू मन ही मन खुश होती थी वहीं सास घुटन से मरती थी क्योंकि बहू का काम सासू जी (ज्यू) के हवाले हो जाता था । आज भी कुछ लोग काले महीनों में कोई शुभ कार्य नहीं करते । लोगों का क्या है ? पितरों को भगवान भी मानते हैं और पितृपक्ष (सरादों में ) को अशुभ भी कहते हैं । वैदिक साहित्य लिखे हुए 3200 वर्ष हो चुके हैं । क्या आज भी हम 3200 वर्ष भूतकाल के समय से चलें ?  मेरा विचार है देश-काल-परिस्थिति से चलें और जो अच्छा है, उचित है उसे अपनाएं और अनुचित को तृणाजलि दें , जैसे तब महिला को वस्तु समझा जाता था और आज महिला हमारे समकक्ष खड़ी है । आज जहाँ एक ओर बेटी ससुराल गई वहीं दूसरी ओर बहू बेटी बन कर घर आ गई । दोनों ही हमसे मम्मी - पापा भी कहने लगे हैं ।

पूरन चन्द्र काण्डपाल
09.01.2020

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