Thursday 27 February 2020

Ptatha parampsra ke nam :प्रथा परम्परा के नाम पर

बिरखांत- 307 : प्रथा- परम्परा में बदलाव

     एक विख्यात जनप्रेरक ने एक टी वी चैनल पर कहा कि ‘वक्त के साथ परम्पराएं बदलनी चाहिए | महिलाओं पर लगे अनुचित प्रतिबन्ध हँटने चाहिए | इंडोनेशिया में महिला पुजारी हैं | सभी धर्मों में महिलाओं को धर्मगुरु बनना चाहिए | पुरानी परम्पराएं जिनका कोई वैधानिक आधार नहीं हो वे हटनी चाहिए |’ उन्होंने अहमदनगर के शनि मंदिर में महिलाओं के प्रवेश का भी समर्थन किया है | अभी सबरीमाला मंदिर में भी महिला प्रवेश की ना-नुकुर करने के बाद न्यायालय के आदेश से अनुमति मिल गई है परन्तु राजनीति ने दखल दे रखा है ।

     उत्तराखंड में भी विगत कुछ वर्षों में बहुत कुछ बदला है | साठ के दसक तक देवभूमि में शराब नहीं थी जो आज चाय की दुकान में भी खुलेआम मिल रही है | शराब के कारण ही रात्रि की शादी दिन में होने लगी परन्तु बरतिए- घरतिये दिन में ही डॉन हो जाते हैं | पहले बरात सायंकाल को कन्या के आंगन में पहुँच जाती थी और सायंकाल में ही धुलिअर्घ  (दुल्हे का स्वागत) होता था | पूरी रात शादी के रश्में होती थी तथा सुबह सूर्योदय के बाद दुल्हन की विदाई होती थी | वर्तमान में दिन की शादी में शराबियों के कारण बरात दिन में दो बजे के बाद ही आती है | दुल्हन की विदाई तीन बजे करनी होती है ताकि वह समय पर अपने ससुराल के आंगन पर पहुँच जाय | इस तरह आठ घंटे में होने वाली शादी अब मात्र आधे घंटे में हो रही है | इस नई परम्परा को हमने शराब के साथ स्वीकार कर लिया है और किसी को कोई आपति भी नहीं हैं |

     समाज में किसी व्यक्ति की मृत्यु के बाद सूतक (शोक) मनाने के भी एक प्रथा है | मैंने अमरनाथ (जम्मू- कश्मीर) से अन्ना स्क्वायर समुद्र तट (तमिल नाडू) तक देश में सूतक की रश्में देखी हैं | विभिन्न स्थानों में सूतक मात्र तीन दिन से लेकर तेरह दिन तक मनाया जाता है | उत्तराखंड में यह 12 दिन का है | इस दौरान मृतक के  परिवार के एक परिजन को 12 दिन तक कोड़े  (क्वड़ - एक विशेष रश्म में इस दौरान कर्मकांड के अनुसार नित्यकर्म करना पड़ता है जिसे "क्वड़'' कहते हैं ।) में बैठना पड़ता है  | 12वे दिन पीपलपानी (जलांजलि देना ) होता है | 12 दिन के सूतक में बिरादरी में सभी शुभकार्य स्थगित कर दिए जाते हैं और पहले से तय किये कार्य रद्द कर दिए जाते हैं | सम्बंधित जनों को 12 दिन तक कार्य बंद करना पड़ता है या अवकाश लेना पड़ता है | इस दौरान यहां तक कि खेत में हल भी नहीं चलाया जाता |

    प्रथा जब बनी थी तब सन्देश भेजने में कई दिन लगते थे और गाँवों में तार (टेलीग्राम) भी देर से मिलते या भेजे जाते थे | आज तार के जगह इन्टरनेट ने ले ली जिससे सन्देश सेकेंडों में पहुँच जाता है | जब हम बदलाव स्वीकार करने के दौर से गुजर रहे रहे हैं तो यह सूतक का समय भी 5 या 7 दिन किये जाने पर मंथन होना चाहिए | मृतक का दुःख हमें जीवन भर रहेगा परन्तु हम 5 दिन का बंधन तो कम कर सकते हैं | श्रद्धांजलि अधिक से अधिक 7 दिन में होने से परिवार, सम्बंधी और मित्रगण 12 दिन के बजाय 7 दिन में ही सूतक से मुक्त हो जायेंगे | इस बदलाव पर अवश्य मंथन करके अपने विचार जरूर व्यक्त करें |

पूरन चन्द्र काण्डपाल
28.02.2020

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