खरी खरी - 567 : भ्रष्टाचार की जड़
जड़ भ्रष्टाचार की
मजबूत इतनी हो गई,
उखड़ वह सकती नहीं
शक्ति सारी खो गई ।
रेत के पुल बन रहे हैं
नजरें घुमाए वे खड़े,
खा रहे भीतर ही भीतर
राष्ट्र को दीमक बड़े ।
डिग्रियां तो बिक रही हैं
अब सरे बाजार में,
नाव शिक्षितों की डोली
जा रही मजधार में ।
मंतरी से संतरी तक
बिक रहे हैं खुलेआम,
घोटालों के संरक्षक
घूम रहे हैं बेलगाम ।
बैंक खाली करके वो तो
छोड़ गया है देश को,
थोड़े कर्ज में जो दबा था
वो छोड़ रहा है देह को ।
भ्रष्ट लोगों के घरों में
जल रहे घी के दीये,
रोकने वाले थे जो
वे भी उन्हीं में मिल लिए ।
टूट रहा है मनोबल
कर्मठ निष्ठावान का,
चक्रव्यूह घेरे उसे है
भ्रष्ट चोर शैतान का ।
सत्यवादी सद्चरित्र का
मान पहले था जहां,
आज झूठे चोर बेईमान
पूजे जाते हैं वहां ।
पूरन चन्द्र काण्डपाल
22.02.2020
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