Sunday 29 December 2019

Mujhe pata naheen shrangar : मुझे पता नहीं श्रृंगार

खरी खरी -542 : "मुझे नहीं पता श्रंंगार।"

         उत्तराखंड के पर्वतीय भाग में ग्रामीण महिलाओं के लिए विज्ञान कोई बदलाव नहीं लाया । वह कहती है, "मेरे लिए कुछ भी नहीं बदला । मैं जंगल से घास -लकड़ी लाती हूँ,  हल चलाती हूँ, दनेला (दन्याइ) लगाती हूँ, निराई-गुड़ाई करती हूँ,  खेत में मोव (गोबर की खाद) डालती हूँ,  दूर-दूर से पीने का पानी लाती हूँ,  पशुपालन करती हूँ और घर -खेत-आँगन का पूरा काम करती हूँ । मुझे पता नहीं चलता कि कब सूरज निकला और कब रात हुई । मुझे नहीं पता श्रंगार क्या होता है ।"

      वह चुप नहीं होती, बोलते रहती है, ''गृहस्थ के सुसाट -भुभाट, रौयाट - बौयाट में मुझे पता भी नहीं चलता कि मेरे हाथों- एड़ियों में खपार (दरार) पड़ गये हैं और मेरा मुखड़ा फट सा गया है । मेरे गालों में चिरोड़े पड़ गए हैं । सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले अपने बच्चों को तो मैं बिलकुल भी समय नहीं दे पाती । सिर्फ उनके लिए रोटी बना देती हूँ बस । अब कुछ बदलाव कहीं-कहीं पर दिखाई देता है वह यह कि खेत बंजर होने लगे हैं । नईं- नईं बहुएं आ रही हैं जो पढ़ी लिखी हैं । वे यह सब काम नहीं करती । हम भी बेटियों को पढ़ाकर ससुराल भेज रहे हैं जो वहाँ यह सब काम नहीं करेंगीं । लड़कों के लिए यहाँ रोजगार नहीं है और वे बहू संग नौकरी की तलाश में निकल गए हैं । सरकार - दरबार से कहती हूं कि तुम ढूंढते रहो उजड़ते गाँवों से पलायन के कारण... पर गांव तो खाली हो गए हैं । यहां वे ही रह गए है जिनका कोई कहीं ले जाने वाला नहीं है ।"

पूरन चन्द्र काण्डपाल
30.12.2019

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