Friday 13 December 2019

India gate ka shaheed : इंडिया गेट का शहीद

बिरखांत-295 : “मैं इंडिया गेट से शहीद बोल रहा हूं जी”

   “भारत की राजधानी नई दिल्ली स्थित इंडिया गेट से मैं ब्रिटिश भारतीय सेना का शहीद इंडिया गेट के प्रांगण का आखों देखा हाल सुना रहा हूं | १३० फुट (४२ मीटर) ऊँचा यह शहीद स्मारक १० वर्ष में १९३१ में बन कर तैयार हुआ | इस स्मारक पर मेरे नाम के साथ ही मेरे कई शहीद साथियों के नाम लिखे हैं जिन्होंने भारतीय सेना में १९१४-१८ के प्रथम महायुद्ध तथा तीसरे अफगान युद्ध में अपनी शहादत दी थी |

       जब मैं शहीद हुआ तब से कई युद्ध हो चुके हैं | देश की स्वतन्त्रता के बाद १९४७-४८ के कबाइली युद्ध, १९६२ का चीनी आक्रमण, १९६५, १९७१ तथा १९९९ का पाकिस्तान युद्ध, १९८६ का श्रीलंका सैन्य सहयोग, संयुक्त राष्ट्र शान्ति सेना बल और विगत ३० वर्षों से जम्मू-कश्मीर के छद्म युद्ध में मेरे कई  साथी शहादत की नामावली में अपना नाम लिखते चले गए | शहीदी का सिलसिला जारी है और रहेगा भी | प्रतिदिन मेरा कोई न कोई साथी कश्मीर में भारत माता पर अपने प्राण न्यौछावर करते जा रहा है |

      स्वतंत्रता के बाद देश की राजधानी में कोई ऐसा स्मारक नहीं बना जहां इन सभी शहीदों के नाम अंकित किये जाते | भला हो उन लोगों का जिन्होंने १९७१ के युद्ध के बाद इंडिया गेट पर उल्टी राइफल के ऊपर हैलमट रखकर उसके पास २६ जनवरी १९७२ को ‘अमर जवान ज्योति’ स्थापित कर दी | इंडिया गेट परिसर में एक शहीद स्मारक बनाने का सुझाव मेरी व्यथा को लिखने वाले इस लेखक ने अपनी पुस्तक ‘इंडिया गेट का शहीद’ (प्रकाशित २००५) में अवश्य दिया है | अब एक शहीद स्मारक बन चुका है ।

       मेरे देश में शहीदों और शहीद परिवारों का कितना सम्मान होता है यह तो आप ही जानें परन्तु मैं इंडिया गेट पर लगे सबसे ऊँचे पत्थर से चौबीसों घंटे देखते रहता हूं कि यहां क्या-क्या होता है | राष्ट्रीय पर्वों पर हमें पुष्प चक्र चढ़ा कर सलामी दी जाती है और कुछ देश-प्रेमी जरूर श्रद्धा-सुमन अर्पित करते हैं | बाकी दिन इंडिया गेट एक पिकनिक स्पॉट बन कर रह गया है | यहां लोग सैर– सपाटे और तफरी के लिए आते हैं | यहां मदारी बन्दर नचाते हैं, स्वदेशी-विदेशी युगल प्रेमालाप करते हैं, बच्चों की अनदेखी कर फब्तियां कसते हैं, अश्लील हरकत करते हैं, किन्नर वसूली करते हैं, कारों में लगे डेक का शोर होता है, भोजन खाकर दोना-पत्तल-प्लास्टिक की थैलियां-खाली बोतल  जहां-तहां डालते हैं, खिलौने वाले और  फोटोग्राफर द्विअर्थी संवाद बोलते हैं |

       हमें श्रधांजलि देना तो दूर हमारी ओर कोई देखता तक नहीं | हमारे प्रति दिखाई गयी यह उदासी तब जरा जरूर कम होती है जब कोई इक्का-दुक्का देशवासी मेरी उलटी राइफल,  हैलमट और प्रज्वलित ज्योति को देखने के लिए वहाँ पर पल भर के लिए रुकता है | मुझे किसी से कोई गिला- शिकवा नहीं है क्योंकि मैं अपने देश के लिए शहीदी देने स्वयं गया था, मुझे कोई खीच कर नहीं ले गया | कुछ कलमें मेरी गाथाओं को लिखने के लिए जरूर चल रहीं हैं, कुछ लोग यदा-कदा मेरे गीत भी गाते हैं, क्या ये कम है मेरी खुशी के लिए ? मैं तो इन पत्थरों में लेटे -लेटे गुनगुनाते रहता हूं –‘सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तां हमारा’ |"

पूरन चन्द्र काण्डपाल
13.12.2019

No comments:

Post a Comment