Friday 28 September 2018

Bodhgaya : गया और बोधगया

बिरखांत- 231 : गया और बोधगया में जो देखा

     कुछ महीने पहले दिल्ली से रांची, रामगढ़ (झारखण्ड) होते हुए गया (बिहार) की यात्रा का अवसर मिला | दिल्ली से रांची लगभग 1300 किमी, रांची से रामगढ 45 किमी और रामगढ़ से गया 180 किमी दूर है | रांची और रामगढ़ झारखण्ड राज्य में हैं जबकि गया बिहार राज्य में है | इस यात्रा के दौरान झारखण्ड क्षेत्र के जंगल भी देखे जिनमें चौड़ी पत्तियों के ही पेड़ थे | उत्तराखंड की तरह वहाँ के घने वनों में चीड़ के वृक्ष नहीं देखे गए |

     फल्गू नदी के किनारे स्तिथ गया शहर की मुख्य दो जगहों का भ्रमण किया – गया (विष्णुपद मंदिर) और बोधगया ( महात्मा बुद्ध का ज्ञान प्राप्ति  स्थान ) | गया से बोधगया की दूरी लगभग 15 किमी है | गया पहुँचते ही पंडो ने घेर लिया | वे शराद करने के लिए बाध्य करने लगे | उन्हें मैंने समझाया, “मेरी आस्था शराद के कर्मकांड में नहीं है | मैं यहाँ किसी धार्मिक कारण से नहीं बल्कि ऐतिहासिक, सामाजिक तथ्य जानने और प्रकृति दर्शन के लिए आया हूँ | मैं पितरों का स्मरण अवश्य करता हूँ, उनमें मेरी श्रद्धा है परन्तु शराद- पिंडदान में नहीं |”

     वहाँ का दृश्य देख कर मैं हतप्रभ था | जहां-तहां पिंडों के ढेर लगे थे | कोई मुंडन करवा रहा था तो कोई किसी भी स्थान पर बैठ कर शराद करवा रहा था | साथ ही कई प्रकार की प्रथा- परम्परा और मान्यता की बात कह कर लोगों को रिझाया- फंसाया जा रहा था | वहाँ गंदगी की किसी को प्रवाह नहीं थी | फर्स काला हो गया था, जहां- तहां कुछ न कुछ शराद में प्रयोग होने वाली वस्तुएं बिखरी थी | भिखारी भी अपना रोना रो रहे थे | अंततः पत्नी ने कुछ दान गरीबों को दिया और मेरे आग्रह पर कुछ दान केवल दानपात्रों में ही डाला जिसे मंदिर समिति उपयोग करती है |

     जहाँ श्रद्धा की बात हो तो उसकी आगे कुछ कहना उचित नहीं | यह श्रद्धा है या अंधश्रद्धा, इसका फैसला व्यक्ति को ही अपने विवेक से करना होता है | मेरी पिंडदान के कर्मकांड में आस्था नहीं है | इसके बजाय हमें पितरों के पुण्य स्मृति में कुछ समाजोपयोगी नेक कार्य करने चाहिए | शराद के पिंड वहीं पर पड़े रहते हैं और धन पंडा ले जाता है | मैं भी अपने पितरों का स्मरण करते हुए पिछले बारह वर्षों से अपने गृह क्षेत्र के कुछ मेधावी बच्चों को प्रतिवर्ष स्वतन्त्रता दिवस पर सम्मानित करता हूँ |

     जहां तक मैं समझता हूँ स्वर्ग नाम का कोई स्थान नहीं है जहां पितरों का वास बताया जाता है | यह एक काल्पनिक विचार है | मृत्यु के बाद देह पंचतत्व में मिल जाती है और आत्मा अजर-अमर है और अदृश्य है | कोई भी जीव जो पैदा होता है वह एक दिन मरता है | उसकी मृत्यु के बाद कर्मकांड के बजाय एक श्रधांजलि ही काफी है और मृतक के नाम पर कुछ जनहित कर्म सबसे उत्तम है | गया में पंडों का तमाशा देख कर ऐसा लगा जैसे वे प्रत्येक श्रद्धालु को मिलकर लूट रहे हैं | इस लूट को समझने की जरूरत है |

     बोधगया स्थान गया से 15 किमी दूर है | यहाँ एक पीपल वृक्ष है, बुद्ध की 80 फीट ऊँची मूर्ति और बौध श्रद्धालुओं के लिए सुमिरन के कई बड़े- बड़े बैठने के स्थान हैं | पंडों जैसी लूट यहाँ नहीं है | दान पात्रों में दान यहाँ भी दिया जाता है | गया की तरह यहाँ न शोर था और न गन्दगी | लोग महात्मा बुद्ध के प्रवचनों के आधार पर सुमिरन करते देखे गए | इन श्रद्धालुओं में अधिकाँश विदेशी थे जिन्हें हम बुद्धिष्ट या बौध मतावलंबी कह सकते हैं |

     अंत में यही कहना चाहता हूँ कि हमारे किसी भी धर्मस्थल पर (गया सहित ) धर्म के नाम पर अंधविश्वास की डोर फंसा कर लूट तो होती ही है, गन्दगी भी बहुत होती है | मुझे देश के कई गुरद्वारों के दर्शन का अवसर भी मिला जहां की स्वच्छता मन-मोह लेती है और अंधविश्वास की लुछालुछ भी वहाँ देखने को नहीं मिलती | श्रद्धा होना ठीक है परन्तु अंधश्रद्धा में डूबना अनुचित है | हम लुटते हैं, लुटने के बाद मसमसाते हैं और फिर भी स्वयं को लुटने देते हैं | यह कैसी श्रद्धा है ? इस पर जरूर मंथन होना चाहिए | अगली बिरखांत में कुछ और ...

पूरन चन्द्र काण्डपाल
28.09.2018

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