खरी खरी - 514 : चुप क्यों ?
जब मेरे आंखों के सामने
कभी किसी कन्या भ्रूण का
लहू गिरता है,
किसी नारी का दामन लुटता है,
रेल का डिब्बा सरेआम फुकता है,
किसी वृक्ष पर कुल्हाड़ा चुभता है,
मैं चुप क्यों रहता हूं ?
मुझे नहीं पता ।
जब पड़ोसी का घर लुटता है,
जब कोई बेकसूर कुटता है,
जब किसी स्त्री पर हाथ उठता है,
जब सत्य पर कहर टूटता है,
मैं चुप क्यों रहता हूं ?
मुझे नहीं पता ।
जब राष्ट्र की संपत्ति लुटती है,
प्रदूषण -धार नदी में घुसती है,
किसी असहाय की सांस घुटती है,
जब भ्रष्टों की जमात जुटती है,
मैं चुप क्यों रहता हूं ?
मुझे नहीं पता ।
जब चैनल मनमानी करते हैं,
जन - मन की नहीं सुनते हैं,
मुद्दों से ध्यान बंटाते हैं,
अपनी टी आर पी बढ़ाते हैं,
मैं चुप क्यों रहता हूं ?
मुझे नहीं पता ।
शायद मैं हालात से डर जाता हूं,
मरने से पहले मर जाता हूं,
कर्तव्य पथ पर ठहर जाता हूं,
फर्ज से पीठ कर जाता हूं ।
अगर मैं जिंदा होता,
अपना मुंह अवश्य खोलता,
चिल्लाकर लोगों को बुलाता,
मिलकर उल्लुओं को भगाता ।
शायद मेरी संवेदना मर गई है,
मुझ से किनारा कर गई है,
मेरा खून पानी हो गया है,
मेरा जमीर बिलकुल सो गया है ।
अब कौन मुझे जगायेगा?
कौन उल्लुओं को भगाएगा ?
मैं मुर्दा नहीं, जिन्दा हूं
यह मुझे कौन बताएगा ?
यह सब मुझे ही करना होगा,
वतन परस्तों से सीखना होगा,
भलेही कोई साथ न दे,
मुझे अकेले ही चलना होगा ।
मुझे अकेले ही चलना होगा ।।
पूरन चन्द्र काण्डपाल
15.09.2020
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